SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीयसूत्रे भुजङ्गप्रयातछंदः (३) प्रकाशप्रकाशाऽस्ति या ज्ञानमासा, लसन्ती सहासा जिनाऽऽस्याधिवासा । महाशुद्धभासाऽतिशुद्धीकृताऽऽशा, रसज्ञानिवासाऽस्तु मे शारदा सा ॥ ३ ॥ उसीभव से मुक्ति प्राप्त कर ली थी सकललब्धियों एवं मनः पर्ययज्ञान की सिद्धि उन्हें मुक्ति जाने से पहिले हो चुकी थी ॥२॥ 'प्रकाशप्रकाशास्ति या ज्ञानभासा' इत्यादि । अर्थ - (जिनास्याधिवासा) जिनेन्द्र प्रभुके मुख में निवास करनेवाली ऐसी (या) जो (शारदा) जिनवाणी है वह (ज्ञानभासा लसन्ती) ज्ञानकी चमकसे चमकती हुई ऐसी प्रतीत होती है कि मानों (सहासा अस्ति ) हँस रही है (प्रकाशप्रकाशा) प्रकाशका हैं प्रकाश जिससे (महाशुद्धभासा) ऐसी वह जिनवाणी अपनी शुद्ध कान्तिसे (अतिशुद्धिकृताशा ) समस्तदिशाओं को शुभ्र बना रही है अत एव (सा शारदा मे रसज्ञानिवासा अस्तु ) वह जिनवाणी मेरी जिह्वा पर निवास करनेवाली हो.। भावार्थ - टीकाकारने यहां जिनवाणी को अपनी जिह्वा के ऊपर निवास करनेकी प्रार्थनाकी है। सो उसका कारण उन्होंने यह प्रकट किया है कि इस जिनवाणीका प्रकाश, प्रकाशसे भी अधिक है क्योंकि प्रकाशसे પાઠી હતા. સમ્યગ્દર્શન વગેરે ગુણેની પૂણ જાગૃતિથી તેમણે તે જ ભવમાં મુક્તિ મેળવી લીધી હતી બધી સિદ્ધિઓ અને મન:પર્યયજ્ઞાનની સિદ્ધિ તેમને મુક્તિ પહેલાં જ મળી ચૂકી હતી. ૨ " प्रकाशप्रकाशास्ति या ज्ञानभासा" इत्यादि । मथ-(जिनस्याधिबासा ) जिनेन्द्र प्रभुना भुममा २नारी मेवा (या) २ (शारदा) Maalo छ, ते (ज्ञानभासा लसन्ती) ज्ञानना प्रशथी प्रशित थती मेवी लागे छ , d ते (सहासा अस्ति) सी न २डी डेय! (प्रकाश प्रकाशा) प्राशने ४ च्यांथी प्राश प्रात थाय छ (महाशुद्धभासा) सेवी ते Fraup पोतानी शुद्ध zild 3 ( अतिशुद्धिकृताशा) मधी हिशासन स्१२७ मनावी. २. छ सेटमा माटे (सा शारदा मे रसज्ञा निवाज्ञा अस्तु) ते જિનવાણી મારી જીભમાં વસનારી થઓ. ભાવાર્થ –ટીકાકારે અહીં જિનવાણીને પિતાની જીભ ઉપર રહેવા વિનંતી કરી છે. તેનું કારણ તેમણે આ પ્રમાણે સ્પષ્ટ કર્યું છે કે આ જિનવાણીનો પ્રકાશ પ્રકાશ શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy