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________________ राजप्रश्नीयसूत्रे अनुष्टुन्छन्दः (५) बालानां सुखबोधाय घासीलालः सुधीव्रती । राजप्रश्नीयसूत्रस्य टीका कु. सुबोधिनीम् ॥५॥ अथेदं राजप्रश्नीयसूत्रं सूत्रकृताङ्गोक्तानां क्रियावाद्यक्रियावाद्यज्ञानिक वैनयिकरूपषाखण्डिकानां क्रमादशीत्यधिकशत-चतुरशीति-सप्तपष्टि-द्वात्रिंशतां संकलनया त्रिषष्टयधिकत्रिशतीसंख्यकानां मतनिरसनपूर्वकस्वसिद्धान्तस्थापनासद्भावात् , तथा क्रियावादिमतवासितान्तःकरणप्रदेशिराजस्याक्रियावादावलम्बनपुरस्सरजीवविषयप्रश्ने केशिकुमारश्रमणगणधरकृतसूत्रकृतागसूचितां-क्रियामण्डल सदा सदोरक मुखवत्रिका से सुशोभित होता है, तथा-( भववारिधिप्लवम् ) संसाररूप समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिये नौका जैसे हैं उनको मैं (प्रणोमि ) मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं ॥ ४ ॥ ___ 'बालानां सुखबोधाय घासीलालो सुधीवती' इत्यादि । मैं-मुनिव्रती घासीलाल 'बालकों को सुख से बोध हो जावे' इस निमित्त राजप्रश्नीय सूत्र की सुबोधिनी नामकी टीका को बनाता हूं ।।५।। सूत्रार्थ-यह राजप्रश्नीयसूत्र सूत्रकृताङ्ग का ही उपाङ्ग है क्यों कि सूत्रकृताङ्ग में कहे गये क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और बिनयवादी रूप पाखण्डियों के क्रमशः ८०, १००, ८४, ६७, और ३२ सब मीलकर ३६३ भेदों के मन्तव्य का इसमें निरसन किया गया है और स्वसिद्धान्त की स्थापना की गई है। तथा क्रियावादिमत से जिसका अन्तः करण वासित है ऐसे प्रदेशी राजा के अक्रियावाद के अवलम्बन पूर्वक जीव के विषय में किये गये प्रश्न के उपर केशिकुमार श्रमणने गणधरकृत शमितु २ छे, तेमा ( भववारिधिप्लवम् ) ससा२ ३५ समुद्रमा मता ७वाने माटे नावनी म छे. तेभने हु (प्रणौमि) नम्र भरत नमन ४३ छु । ४ । 'बालानां सुखबोधाय घासीलालो सुधीद्वती' इत्यादि । અર્થ-હુ મુનિવ્રતી ઘાસીલાલ બાળકને સુખેથી બંધ થઈ શકે તે માટે રાજપ્રશ્રીય સૂત્રની “સુબેદિની” ટીકા લખું છું. . પ ! આ “રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર સૂત્રકૃતાનું જ ઉપાડે છે. કેમકે સૂત્રકૃતામાં આવતા કિયાવાદી, અકિયાવાદી, અજ્ઞાનવાદી અને વિનયવાદી રૂપ પાંખડીઓને અનુકમથી ૮૦, ૧૦૦, ૮૪, ૬૭, અને ૩૨ આમ બધા થઈને ૩૬૩ ભેદના મન્તવ્યનું આમાં નિરસન કરવામાં આવ્યું છે. અને સ્વસિદ્ધાન્તની સ્થાપના કરી છે. તેમજ ક્રિયાવાદિ મતથી જેમનું અંતર વાસિત છે. એવા પ્રદેશી રાજાના છકિયાવાદના અવલંબન પૂર્વક શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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