SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० राजप्रश्नीयसूत्रे मारफुल्लावलिपउमपत्त सागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरोइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोहिए तं जहा-किण्हेहिं णीलेहिं लोहिएहि सुकिलेहि। तत्थ णं जे से किण्हा मणीतेसि णं मणीणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमूतएइ वा अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाइ वा भमरेइ वा भमरावलियाइ वा भमरपतंगसारेइ वा जंबूफलेइ वा अद्दारिटेइ वा परहुएइ वा गएइ वा गयकलभेइ वा किण्हसप्पेइ वा किण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेइ वा किण्हासीएइ वा किण्हकणवीरेइ वा किण्हबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे सिया? णो इणठे समढे ओवम्म समणाउसो तेणं किण्हा मणी इत्तो इतराए चेब कंततराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ता ॥ सू० १५ ॥ छाया-ततः स आभियोगिको देवः तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य अन्तः बहुसमरमणीयं भूमिभाग विकरोति । स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा मृदङ्गपुष्करमिति वा सरस्वलमिति वा करतलमिति वा चन्द्रमण्ड 'तए णं आभियोगिए देवे' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तएणं ) इसके बाद (से आभियोगिए देवे तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स अंतो) उस आभियोगिक देवने उस दिव्य यानविमान के भीतर (बहुसमरमणिज्जं भूमिभाग ) बहुसमरमणीय भूमिभाग की (विउव्वइ) विकुर्वणा की (से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ 'तए णं से आभियोगिए देवे' इत्यादि । सूत्राथ:-(तएणं ) त्या२ ५७ ( से आभियोगिए देवे तस्स दिब्वस्स जाणविमाणस्स अंतो) ते लिये हवे ते हिव्य यान विमाननी 24°४२ ( बहुसमरमणिज्जभूमिभाग) मा सम मेवी २भणीय भूमिमानी (विउव्वइ) विव'। ४२री ( से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइवा, मुइंगपुक्खरेइ वा, सरलतलेइवा, શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy