SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टीका. स. १५ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था १३१ लमिति वा सूरमण्डलमिति वा आदर्शमण्डलमिति वा उरभ्रचर्मेति वा वृषभचर्मेति वा वराहचर्मेति वा सिंहचर्मेति वा व्याघ्रचर्मेति वा मृगचर्मेति वा छगलचर्मेति वा द्वीपिकचर्मेति वा अनेकशङ्ककीलक सहस्रविततः नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिः उपशोभितः आवर्तप्रत्यावर्तश्रेणिप्रश्रेणि सौवस्तिक पुष्पमाणवकवर्द्धमान वासरतलेइ वा करतले वा चंदमंडले वा) वह भूमिभाग ऐसा समतल था जैसा कि आलिंगपुष्कर होता हैं, या मृदङ्ग पुष्कर होता है, या सरस्तल होता है, या करतल होता है, या चन्द्रमण्डल होता है ( सूरमंडलेइ वा ) या सूर्यमंडल होता है ( आयंसमंडलेड वा ) या आदर्शमंडल (दर्पण) होता है, ( उरम्भ चम्मे वा ) या उरचर्म होता है ( बसहचम्मेइ वा ) अथवा वृषभ चर्म होता है (रामे वा ) या वराह चर्म होता है, ( सीहम्मे वा ) या सिंह होता है, ( area मे वा) व्याघ्रचर्म होता है, (मिगचम्मेइ वा ) या मृगचर्म होता है (छगलचम्मेह वा) या छागचर्म होता है (दीवियचम्मेह वा) या दीपिचर्म होता है, (अणेगसंकुकीलगसहस्सवितए) यह विशेषण उरभ्र चर्मादिकोंका है इसका तात्पर्य ऐसा है कि जिस प्रकार अनेक सहस्र शंकुप्रमाण कीलकों से ताडित हुआ उरभ्रादिचर्म विस्तृत हो जाता है और समतलवाला बन जाता है - इसी प्रकारसे यानविमानका भीतरका भूमिभाग समतल था ( णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि उवसोभिए) नाना प्रकार के पंचवर्णों वाले मणियों से वह उपशोभित था ( आवड पच्चावड सेढिपसेढिसोवत्थिय करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा ) ते लूभिलाग या लतनो समतल तो वो सिंग પુષ્કર હાય છે કે મૃદંગ સમતલ હોય છે. કે સરસ્તલ હોય છે, કે કરતલ હાય छे ङे यद्रभौंडज होय छे. ( सूरमडलेइ वा ) सूर्यमंडल होय छे. (आयसमंडलेइ वा ) } आदर्श ( अरिसो ) भांडण होय छे, ( उरब्भचम्मेइवा ) } २अभ होय छे. (वसहचम्मेइ वा ) } वृषल यर्भ होय छे, ( वराहचम्मेइ वा ) देवराई (लुङ) सम होय छे, ( सीहचम्मेइ वा ) } सिंह यर्म होय छे, (वग्धचम्मेइ वा ) } व्याघ्र यभ होय छे, ( मिगचम्मेइ वा ) } भृग यर्म होय छे, (छगलचम्मेइ वा ) छान यर्म होय छे, (दीवियचम्मेइ वा ) द्वीपि यर्म होय छे, (अणेग संकुकी लगसहस्सवितए) मा विशेषण उरथर्म वगेरेनुं छे. मानो अर्थ આ પ્રમાણે થાય છે કે જેમ હારા શંકુ પ્રમાણ કીલકાથી તાડિત થયેલું ઉરભ્ર વિગેરેનું ચર્માં વિસ્તૃત થઈ જાય છે અને સમતલવાળું થઈ જાય છે તેમજ યાનविभाननी अहरनो लूभि लाग याशु समतल हुतो. ( णाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए) ने ललना पांच रंगोवाजा भशिगोथी ते उपशोलित हुतो. શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર : ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy