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________________ ५९ विषाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, चन्दनपादपोद्यानवर्णनम् . पातिकमूत्राच्चम्पानगरीवद् बोध्यः । तस्स णं मियागामस्स णयरस्स' तस्य खलु मृगाग्रामस्य नगरस्य 'बहिया' बहिः = बाह्यमदेशे 'उत्तरपुरस्थि मे दिसीभाए ' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे = ईशानकोणे, 'चंदणपायवे णामं उज्जाणे' चन्दनपादपनामकमुद्यानम् 'होत्था' आसीत्, तत् कीदृश? - मित्याह- 'सव्वोउय० वण्णओ' सार्वर्तुक० वर्णकः - चन्दनपादपोद्यानस्य वर्णन सार्वर्तुक० - इत्यादि विज्ञेयं, तथाहि'सव्वोउयपुष्पफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ' सार्वर्तुकपुष्पफलसमृद्धं रम्यं नन्दनवनप्रकाशं प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपम् इति । तत्र सार्वर्त्तकपुष्पफलसमृद्धम् - सार्वर्तुकानि वसन्तादिसर्वऋतुसम्बन्धीनि यानि पुष्पफलानि तैः समृद्धं रम्यं = रमणीयम्, नन्दनवन - प्रकाशं=नन्दनवनतुल्यं, प्रासादीयादिपदानामर्थाः पूर्ववद् बोध्याः । ' तत्थ णं चंपानगरी जिस प्रकार की अद्भुत शोभा आदि गुणों से विशिष्ट उसी प्रकार से यह नगर भी अपने अनुपम सौन्दर्य से युक्त है । ' तस्स णं मियागामस्स णयरस्स' उस मृगाग्राम नामके नगर के 'बहिया' बाह्यप्रदेश में ' उत्तर-पुरस्थिमे दिसीभाए ' उत्तर और पूर्वदिशा के भाग - ईशान कोण में ' चंदणपायवे णामं उज्जाणे होत्था' चंदनपादप नाम का एक उद्यान- बगीचा था । ' सव्वोउय वण्णओ' इसका वर्णन इस प्रकार समझना चाहिये, ( सव्वाउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदण पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ) यह समस्तऋतुसंबंधी पुष्प और फलों से सदा हरा-भरा बना रहता था । अनेक जाति के सुगंधित फूलों से यह सुरम्य और इन्द्र के नंदनवन जैसा मन को आनंदित करने वाला, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था । ' तत्थ णं चंदणपायवस्स बहुमज्झदेसभाए ' अनुपम सौन्दर्यथी युक्त छे. ( तस्स णं मियागामस्स गयरस्स) मा भृगाश्राम नाभना नगरभां (बहिया) मा प्रदेशमां (उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए) उत्तर भने पूर्व हिशाना लाग-शान - भां (चंदणपायवे णामं उज्जाणे होत्था ) यनचाहय नामनो मे उद्यान -भगीयो इतो, ते (सव्वोउय० वण्णओ) मनुं वनमा अक्षरे ललुवुं लेाभे, (सव्वोउयपुष्पफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ) तमाम ऋतुनां पुण्यो रमने इणोथी ते जगीयो હુંમેશા ભરપૂર હતા, અનેક જાતિના સુગંધિત ફૂલાથી તે સુરમ્ય અને ઇન્દ્રના નદનવન પ્રમાણે મનને આનન્દ આપનારા, પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ હતા. શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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