SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 758
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० २, अ० १, सुबाहुकुमारवर्णनम् ३३ 'एवं भासइ' एवं भाषते = अहो ! सुमुखो गाथापति - रीदृशः प्रभावशाली यस्य महिमा देवैरपि गीयते इत्यादि विशेषवचनैर्वदति । एवं पनवे' एवं प्रज्ञापयति = 'दानं स्वर्गापवर्गकपाटोद्घाटनसमर्थ' मिति बोधयति । 'एवं परूवे' एवं प्ररूपयति=अभयसुपात्रादिदानमस्माभिरवश्यं कर्त्तव्य' मिति बोधयन् कथयति, कि कथयती ? - त्याह- ' घण्णे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई' धन्यः=धन्यवादयोग्यः खलु हे देवानुप्रियाः ! सुमुखो गाथापतिः ' जाव' यावत् - यात्र च्छब्देनायं सङ्ग्रहः - 'सपुण्णे णं देवाशुप्पिया ! सुमुहे गाहावई, कत्थे णं देवापिया ! सुमुहे गाहावई । कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई । safarai देवाणुपिया ! सुमुहे गाहावई । सुद्धे णं देवाणुप्पिया ! तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स जम्मजीवियफले, जस्स इमा एयारूवा उराला माणुस्सरिद्धी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया' 'सपुण्णे णं' सपुण्यः = पुण्येन युक्तः खलु गद्स्वर होकर ' एवं भासइ' इस प्रकार कहते हैं कि यह सुमुख गाथापति बडा ही भाग्यशाली है, देखो इसकी महिमा देवता तक भी गाते हैं । ' एवं पन्नवेइ' इस प्रकार प्रज्ञापना करते हैं यह बातसच है कि -दान, स्वर्ग और अपवर्ग-मोक्ष के द्वार के कपाट को उघाडने में समर्थ है । ' एवं परूवेइ' इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि हमलोगों का भी कर्तव्य है कि हमलोग भी सुपात्र दान दिया करें । फिर कहते हैं कि-'घणे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव तं घण्णे णं देवापिया ! सुमुहे गाहावई' देखो जब देवता तक सुमुख गाथापति की प्रशंसा कर रहे हैं तो हमलोगों की तर्फ से भी यह अनिवार्य धन्यवाद का पात्र है । यावत् शब्द से ग्रहण किये गये पद इस प्रकार हैं- 'सपुणे णं देवाणुपिया ! सुमुहे गाहावई, कयत्थे णं देवाणुप्पिया ! આ પ્રકારે કહેવા લાગ્યા કે—આ સુમુખ ગાથાતિ મહાભાગ્યશાળી છે, જુએ, તેના મહિમા हेवताओ। पशु गाय छे 'एवं पन्नवेइ' भने या प्रमाणे लडेर ४रे छे मेवात साथी छे ! स्वर्ग भने 'अपवर्ग' 'मोक्ष' ना हरवान्न उधाडवामां 'हान' समर्थ छे, ' एवं परूवेई' मा प्रमाणे अ३ रे छे - आ उपरथी सभाई या उर्तव्य કે અમારે સૌએ સુપાત્રાને દાન આપ્યા કરવું જોઈએ, ફરી પણ કહે છે કે, 'घणे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव तं धण्णे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई' लुम्मा, न्यारे देवताओ सुधीना सौ सुमुख गाथापतिनी प्रशंसा १३ छे तो भाषा सौना तर३थी पशु ते अनिवार्य धन्यवाहने पात्र छे, 'यावत्' शब्दथी अडुणु १२वामां आवेलां यहो या प्रमाणे छे. "सपुण्णे णं देवाणुप्पिया ! , શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy