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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु. १, अ० १, जम्बूस्वामिवर्णनम्. ४९ जातश्रद्धादिपदत्रयेणावग्रहः, उत्पन्नश्रद्धादिपदत्रयेण ईहा, संजातश्रद्धादिपदत्रयेण अवायः, समुत्पन्नश्रद्धादिपदत्रयेण च धारणा प्रतिबोध्यते, इति । ईदृशाऽनेकगुणपूर्वकता आने से उनमें परस्पर में कार्य-कारणभाव प्रदर्शित होता है, प्रश्न के वश से जिज्ञासारूप श्रद्धा होती है उसका कारण संशय और कुतूहल होते हैं। (१) जातश्रद्रः जातसंशयः जातकुतूहल:, (२) उत्पन्नश्रद्धः, उत्पन्नसंशयः, उत्पन्नकुतूहलः, (३) संजातश्रद्धः, संजातसंशयः, संजातकुतूहलः, (४) समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहला,"। यहां कोई इस प्रकार भी समाधान उपस्थित करते हैं कि-"जातश्रद्धः” इत्यादि तीन पदों से सूत्रकार यह बात पुष्ट करते हैं कि-जंबूस्वामी में जो सर्वप्रथम श्रद्धा, संशय एवं कुतूहल उत्पन्न हुए वे अवग्रहरूप में ही हुए, ईहा, अवाय और धारणारूप से नहीं। "उत्पन्नश्रद्धः” इत्यादि तीन पदों से यह पुष्ट होता है कि वे सब बाद में ही उनमें ईहारूप से, "संजातश्रद्धा इत्यादि तीन पदों द्वारा पश्चात अवायरूपसे, और 'समुत्पन्नश्रद्धः' इत्यादि तीन पदों द्वारा फिर धारणारूप से पुष्ट हुए। भाव यह है-कि आस्रव और संवर के विपाक के विषय में जो उन्हें श्रद्धा, संशय और कुतूहल हुए, वे उन्हें सर्वप्रथम अवग्रहरूप में हए, क्यों कि सर्वप्रथम पदार्थ का अवग्रहरूप ही ज्ञान होता है। बाद में वहां पर संशय के होने पर उसके निराकरणरूप जो આવવાથી તેમાં પરસ્પરમાં કાર્ય–કારણભાવ પ્રદર્શિત થાય છે. પ્રશ્નના વશથી જિજ્ઞાસારૂપ श्रद्धा थाय छ, हेर्नु ४१२९४ संशय मने तडस डाय छे. (१) जातश्रद्धः, जातसंशयः, जातकुतूहलः, (२) उत्पन्नश्रद्धः, उत्पनसंशयः, उत्पन्नकुतूहलः, (३) संजातश्रद्धः, संजातसंशयः, संजातकुतूहल:, (४) समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः। मडी : २ प्रमाणे समाधान ४२ छे:- 'जातश्रद्धः' इत्याहि त्राणु पोथी સૂત્રકાર એ વાત પુષ્ટ કરે છે કે- જબૂસ્વામીમાં જે સર્વપ્રથમ શ્રદ્ધા, સંશય અને કુતૂહલ ઉપન્ન થયાં તે અવગ્રહ રૂપમાં જ થયાં છે, ઈહા, અવાય અને ધારણા રૂપથી नही. "उत्पन्नश्रद्धः" त्याहि वा पढाथी से पुष्ट थाय छ । ते श्रद्धामा पछीथी तमनामा “ईहा" ३५थी, 'संजातश्रद्धः' त्याहिए पहो द्वारा त्या२।४ "अवाय" ३५थी भने 'समत्पन्नश्रद्धः। प्रत्याहि पहो द्वारा ते पछी 'धारणा' ३५थी पुष्ट थाय छे. ભાવ એ છે કે–આસ્રવ અને સંવરના વિપાકવિષયમાં જે તેમને શ્રદ્ધા, સંશય અને કુતુહલ થયાં છે તે તેમને સર્વપ્રથમ અવગ્રહરૂપમાં થયાં છે, કારણ કે સર્વ પ્રથમ પદાર્થના અવગ્રહરૂપ જ્ઞાન થાય છે. ત્યાર પછી સંશય થતાં તેના નિરાકરણ શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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