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________________ ४८ विपाकश्रुते जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा यस्य स तथा । एवमग्रेऽपि । 'समुप्पण्णसड्ढे, समुप्पण्णसंसए, समुप्पण्णकोउहल्ले'-समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहल: । तत्र-समुत्पन्ना-सवेथा संजाता श्रद्धा यस्य स तथा । एवमग्रेऽपि । श्रद्धादयः शब्दा व्याख्याता एव । अत्र श्रद्धादौ कार्यकारणभावोऽवगन्तव्यः, प्रश्नवाञ्छा जिज्ञासारूपा श्रद्धा जाता, तस्याः कारणं संशयः, कुतूहलं चेति । अन्ये वाहु: भी अधिक विशेष आदि अर्थ का द्योतक है। ये पद श्रद्धा, संशय एवं कुतूहल के भिन्न२ वस्तुस्वरूप के निर्णय में जाग्रति प्रदर्शित करते हैं। तथा 'समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहल:' ये पद भी श्रद्धा आदि की उत्पत्ति में सर्वथारूपसे जाग्रति प्रकट करने वाले हैं। “ समुत्पन्ना = सर्वथा संजाता श्रद्धा यस्य सः" अर्थात् सर्व प्रकार से उत्पन्न हुई है श्रद्धा जिसके वह समुत्पन्नश्रद्ध कहलाता है। __ शंका- सूत्र में सर्वप्रथम " जातश्रद्धः” इत्यादिक जो पद रखे गये हैं, वे सर्वथा व्युत्क्रमवाले हैं, क्यों कि जबतक संशय या कुतूहल नहीं होगा तबतक श्रद्धा हो ही नहीं सकती, इसीलिये सर्वप्रथम सूत्र में संशय आदि का पाठ रखना उचित था, बाद में श्रद्धा का। समाधान-शंका ठीक नहीं; क्यों कि इस प्रकार के पाठ से विशिष्ट अर्थ की प्रतीति सूत्रकार को करानी इष्ट है, और वह इस प्रकार से। यह यद्यपि ठीक है कि-संशयादिपूर्वक ही श्रद्धा की संगति यहां ठीक जचती है, तो भी श्रद्धा में संशय और कुतूहलસ શય અને કુતૂહલના ભિન્ન ભિન્ન વસ્તુસ્વરૂપના નિર્ણયમાં જાગૃતિ પ્રદર્શિત કરે છે. તથા 'समुत्पन्नश्रद्धः, समुत्पन्नसंशयः, समुत्पन्नकुतूहलः' से पहो पा श्रद्धा माहिनी उत्पत्तिमा सर्वथा ३५थी Mpति ५४८ ४२नारा छ.'समुत्पन्ना = सर्वथा संजाता श्रद्धा यस्य सः' अर्थात सर्व प्राथी त्पन्न थयेही श्रद्धा ने छ ते समुत्पन्न हेपाय छे. -सत्रमा सौथी प्रथम 'जातश्रद्धः' यानि पो राजेसा छ ते સર્વથા બુકમવાળાં છે, કારણ કે જ્યાં સુધી સંશય અથવા કુતૂહલ નહિ થાય ત્યાં સુધી શ્રદ્ધા હેઈ શકે જ નહિ. એટલા માટે સૌથી પ્રથમ સૂત્રમાં સંશય અદિને પાઠ રાખે જોઈતો હતો, ત્યાર પછી શ્રદ્ધાને. ઉત્તર–શંકા બરાબર નથી, કારણકે આ પ્રકારના પાઠથી વિશિષ્ટ અર્થની પ્રતીતિ સૂત્રકારને કરાવવી ઈષ્ટ છે, અને તે આ પ્રકારથી. એ જો કે ઠીક છે કે સંશયાદિપૂર્વકજ શ્રદ્ધાની સંગતિ કરવી, તે પણ શ્રદ્ધામાં સંશય અને કુતૂહલ-પૂર્વક્તા શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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