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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ९, देवदत्तावर्णनम् टीका 'तए णं सा इत्यादि । 'तए णं सा देवदत्ता दारिया' ततः खलु सा देवदत्ता दारिका-कन्यका 'उम्मुक्कबालभावा' उन्मुक्तबालभावा 'जोव्यणेण य' यौवनेन 'रूवेण य' रूपेण= शरीराकृत्या 'लावण्णेण य' लावण्येन शरीरकान्त्या 'जाव' यावत्-'अतीव२' अतीवातीव 'उकिट्ठा' उस्कृष्टा 'उक्किटुसरीरा' उत्कृष्टशरीरा-परमसुन्दरी 'जाया यावि होत्था' जाता चाप्यभवत् । 'तए णं सा देवदत्ता दारिया' ततः खलु सा देवदत्ता दारिका 'अण्णया कयाई' अन्यदा कदाचित् एकस्मिन् समये 'हाया' स्नाता=कृतस्नाना 'जाव विभूसिया'यावद् विभूषितासर्वालङ्कारविभूषिता परिहितसुन्दरवस्त्राभरणा सती 'बहूहिं खुजाहिं' बहुभिः कुब्जाभिः 'जाव' यावत्-अष्टादशदेशीयाभिर्दा सीभिः 'परिक्खित्ता' परिक्षिप्ता परिव्रता 'उप्पिं आगातसलंसि' उपरि आकाशतले प्रासादोपरिभागे 'चादनी' इति प्रसिद्ध स्थाने 'कणगतिंदूसएणं' कनकतिन्दूसकेन=सुवर्णकन्दुकेन='कीलमाणी' क्रीडन्ती विहरइ'विहरति-वर्त्तते ॥सू०१०॥ 'तए णं सा' इत्यादि । (तए णं सा देवदत्ता दारिया) जब वह देवदत्ता पुत्री (उम्मुक्कबालभावा) बाल्यावस्था के बाद युवावस्था आने पर (जोवणेण य रूवेण य लावण्णेण य जाव अईच२ उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था) इसका शरीर आकृति और लावण्य से सुन्दर दीखने लगा । 'तए णं सा देवदत्ता दारिया अण्णया कयाइं ण्हाया जाव विभूसिया बहुहिं मुजाहिं जाव परिक्खित्ता' किसी एक समय यह देवदत्ता लडकी स्नान कर और वस्त्राभूषण पहिर कर अपनी १८ देश की दासियां के परिवार के साथ 'उप्पि आगासतलंसि कणगतिंदुसएणं कीलमाणी विहरइ ' ऊपर आकाशतल-प्रासाद के ऊपरी भाग-चांदनी-में सुवर्ण की गेंद से क्रीडा कर रही थी॥सू०१०॥ 'तए णं सा' त्याहि. 'तए णं सादेवदत्ता दारिया' न्यारे ते हेपत्ता पुत्री 'उम्मुक्कबालभावा माल्यावस्था पछी न्यारे यौवनावस्थामा मावी त्यारे जोवणेण य रूवेण य लावण्णेण य जाव अईव२ उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था' ते पाताना शरीरनी माइति भने साएयथा सुन्६२ मावा all. 'तए णं सा देवदत्ता दारिया अण्णया कयाई बहाया जाव विभूसिया बहुहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता' ये समये ते विहत्ता पुत्री स्नान 3री भने साभूषण पहेशन पोतानी मढ२ शनी सीमाना परिवार साथे 'उप्पि आगासतलंसि कणगतिदसएणं कीलमाणी विहरई' पाताना माशतवा भडसना परना लाभा-यांनाभा सोनाना गेडी-थीमती ती. (सू० १०) શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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