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________________ ५८६ विपाकश्रुते भाए' उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे-ईशानकोणे 'एत्थ णं' अत्र खलु-एकदेशभागे 'एगे' एकः 'मच्छंधपाडए' मत्स्यबन्धपाटकः कैवर्तजनवसतिः 'होत्था' आसीत् , 'तत्थ गं' तत्र खलु 'समुददत्ते णाम' समुद्रदत्तो नाम 'मच्छंधे' मत्स्यबन्धः कैवतः 'परिवसई' परिवसति। कीदृशः ? इत्याह-'अहम्मिए' अधार्मिकः 'जाव दुप्पडियाणंदे' यावत् दुष्पत्यानन्दा-सन्तोषकरणैरप्यनुत्पद्यमानसन्तोषः। 'तस्स णं समुददत्तस्स मच्छंधस्स' तस्य खलु समुददत्तस्य मत्स्यबन्धस्य 'समुहदत्ता णामं भारिया होत्था' समुद्रदत्ता नाम भार्याऽऽसीत । स कीदृशी ? त्याह'अहीण.' अहीनपरिपूर्णपत्रेन्द्रियशरीरा । 'तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुते समुददत्ताए भारियाए' तस्य खलु समुद्रदत्तस्य मत्स्यवन्धस्य पुत्रः समुद्रदत्ताया भार्याया 'अत्तए' आत्मजः 'सोरियदत्ते णामं शौर्यदतो नाम 'दारए होत्था' दारकोऽभवत् स कीदृशः इत्याह-'अहीण' अहीनपरिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरः॥मू० १॥ नगर का राजा शौर्यदत्त था । 'तस्स णं सोरियपुरस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए' उस शौर्यपुर नगर के उत्तरपौरस्त्य-दिग्भाग में ईशान कोण में 'एस्थ णं एगे मच्छंधपाडए होत्था' एक और एक कैवर्तक-मच्छी मारों-की वस्ती थी 'तत्थ णं समुदत्ते णामं मच्छंधे परिवसइ' उस वस्ती में समुद्रदत्त नामका एक मच्छीमार रहता था। यह 'अधम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे' महा अधार्मिक एवं दुष्प्रत्यानंदी था । 'तस्स० णं समुदत्तस्स मच्छंधस्स समुददत्ता णामं भारिया होत्था' समुद्रदत्त मच्छीमार की भार्या का नाम समुद्रदत्ता था । 'अहीण' यह बहुत ही सुन्दर थी । प्रमाण एवं लक्षण से इस की पांचों इन्द्रियां परिपूर्ण थीं। 'तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुददत्ताए भारियाए अत्तए सेोरियदत्ते णामं दारए होत्था' इस समुद्रदत्त मच्छीमार का एक पुत्र था जो 'तस्स णं सेोरियपुरस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए' ते शौर्य पु२ नगरना उत्तर दिशाना मामा शान सुष्मा 'एत्थ णं एगे मच्छंधपाडए होत्था' मे पातु वत-५२छीमारांनी १स्ती ती. 'तत्थ णं समुद्ददत्ते गाम मच्छंधे परिवसइ' ते पस्तीमा समुद्रहत्त नामनी मे भरछीमार रहाता तो, ते 'अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, महाअभी अने दुष्प्रत्यानही तो. 'तस्स णं समुद्ददत्तस्स मच्छंधस्स समुहदत्ता णामं भारिया होत्था' ते समुद्रत भ२छीमारनी सीन नाम समुद्रता तु ' अहीण. ' ते धollar सुन्६२ ती. प्रमाण अर्थात RAuथा तेनी पांय छद्रियो परिपूर्ण ता. ' तस्स णं समुददत्तस्स मच्छंधस्स पुत्ते समुद्ददत्ताए भारियाए अत्तए सेोरियदत्ते णामं दारए होत्था' में समुद्रात्त શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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