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________________ - ४६२ विपाकश्रुते अष्टशतं वैश्यदारकाणाम् , 'अट्ठसयं सुद्ददारगाणं' अष्टशतं शूद्रदारकाणां 'पुरिसेहि गिण्हावेई' पुरुषैः-राजपुरुषैर्ग्राहयति, 'गिहावित्ता तेर्सि' ग्राहयित्वा तेषां 'जीवंतगाणं चेव' जीवतामेव 'हियउडियाओ' हृदयपुटिकाः 'गिण्हावेइ' ग्राहयति, गिहावित्ता जियसत्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेइ' ग्राहयित्वा जितशत्रो राज्ञः शान्तिहोमं करोति । 'तए णं से' ततः खलु स 'परवले' परबल शत्रुसैन्यं 'खिप्पामेव' क्षिप्रमेव 'विद्धंसेइ वा' विध्वंसयति-नाशयति 'पडिसेहेइ वा' प्रतिषेधयति-निवर्त्तयति ॥ मू० ३ ॥ बालकों को, १०८ क्षत्रियों के बालकों को, १०८ वैश्यों के बालकों को, और शूद्रों के १०८ बालकों को राजपुरुषों द्वारा पकडवा लेता और 'गिहावित्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हियउडियाओ गिण्हावेइ, गिण्हावित्ता जियसत्तुस्स रण्णा संतिहोमं करेइ पकडवाकर उनका हृदयपुट निकलवाता, निकलवाकर उससे जितशत्रु राजा की शांति की कामना से शांतिहोम करता 'तए णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसेइ वा पडिसेहेइ वा इस प्रकार वह पुरोहित परसैन्य का शीघ्र ही विनाश करदेता और कितनेक सैनिकों को खदेड देता था। भावार्थ- हे गौतम ! इस जंबूढीपस्थित भरतखण्ड में एक विशाल नगर था । जो सर्वप्रकार से समृद्ध एवं धनधान्यादि से पूर्ण हरा-भरा था । इम में जनता के मुख पर सदा आनंद छाया हुआ रहता था। कोई किसी भी प्रकार से दुःखी नहीं था । सर्वतोभद्र इस नगर का नाम था। यहां का राजा जितशत्र था। इस का एक पुरोहित था । जो वेदविद्या में पूर्णरूप से निष्णात था। महेश्वरदत्त ક્ષત્રિયનાં બાળકને, ૧૦૮ વૈશ્યનાં બાળકોને, ૧૦૮ શુદ્રોના બાળકને રાજપુરુષે દ્વારા ५४ावतेमने 'गिहावित्ता तेसिं जीवंतगाणं चेव हियउडियाओ गिण्हावेइ, गिहावित्ता जियसत्तस्स रण्णो संतिहोमं करेइ' ५४वीन तनयपिडने ४ढावीत. ४४ावाने तेना 43 [तशत्रु २०नी शांतिनी मिनाथी म ४२ 'तए णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसेइ, वा पडिसेहेइ वा ते प्रमाणे ये पुडित पक्षोन्यन। તુરત જ નાશ કરી દેતે અને કેટલાક સૈન્યને ભગાડી આપતે હતે. ભાવાર્થ– હે ગૌતમ! આ જંબૂઢીપસ્થિત ભરતખંડમાં એક વિશાલ નગર હતું, તે સર્વ પ્રકારથી સમૃદ્ધ અને ધન-ધાન્યાદિકથી પરિપૂર્ણ-ભરેલું હતું. તે નગરની પ્રજાના મુખપર હમેશાં આનંદ વરતા હો, કેઈપણ પ્રકારનું ત્યાં દુઃખ ન હતું, તે નગરનું નામ સર્વતોભદ્ર હતું, તેના રાજા જિતશત્રુ હતા, તેને એક શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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