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________________ वि. टोका, श्रु० १, अ० ४, शकटजन्मवर्णनम् ४१७ एतत्समाचारः-अजादियावन्महिषयूथमारणाद्याचरणशीलः। 'सुबहु पावकम्मं कलिकलुसं' सुबहुपापकर्म कलिकलुषं 'समजिणित्ता' समुपाज्य-उपार्जितं कृत्वा, 'सत्तवाससयाई परमाउं' सप्तवर्षशतानि सप्तशतसंवत्सरान् परमायुः उत्कृष्टमायुः 'पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं' पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा, चतुा पृथिव्यामुत्कर्षेण 'दससागरोवमटिइएमु णेरइयासु णेरइयत्ताए' दशसागरोपमस्थितिकेषु नैयिकेषु नैरयिकतया 'उववण्णे' उत्पन्नः। 'तए णं सुभद्दस्स सस्थवाहस्स भदा भारिया' ततः खलु सुभदस्य सार्थवाहस्य भद्रा नाम्नी भार्या 'जाइजिंदया' जातिनिन्दका जन्मतो मृतवत्सा, 'याचि होत्था' चाप्यभवत् । 'जाया जाया दारगा' जाता जाता दारकाः शिशवः 'विणिहायमावज्जति' विनिघातमापद्यन्ते-जाता एव म्रियन्ते इत्यर्थः । 'तए णं से छण्णिए छागलिए चउत्थीए पुढवीए अणंतरं' ततः खलु स छनिकश्छागलिअजादिक पशुओं की मारने की विधि में जो विशेष निपुण था 'एयसमायरे' यही जिसका आचरण था ‘सुबहु पावकम्मं कलिकलुसं' अत्यंत घोरतर निकाचितबंधसहित अनेक पापकों को 'समजिणित्ता' उपार्जित कर 'सत्तवाससयाई परामाउं पालित्ता' ७०० वर्ष की उत्कृष्ट आयु को भोगकर 'कालमासे कालं किच्चा' मृत्यु के अवसर पर मरकर 'चउत्थीए पुढवीए' चौथी पृथिवो में कि जहां 'उकोसेणं दससागरोवमहिइएसु णेरइएमु' उत्कृष्ट १० सागर को स्थिति वाले नारकावास हैं, उनमें 'णेरइत्ताए' नारकी की पर्याय से 'उववण्णे' उत्पन्न हुआ । 'तए णं सुभद्दस्स सस्थवाहस्स भद्दा भारिया जाइणिदुया यावि होत्था' सुभद्र सेठ की भद्रा भार्या जातिनिन्दुक थी 'जाया२ दारगा विणिहायमावजंति' उत्पन्न होते ही इसके बच्चे मरजाते थे 'तए णं से छणिए छागलिए' भारवानी विधिमा त विशेष अशा इता. 'एयसमायारे' से रेनु मायण केतु 'सुबह पावकम्मं कलिकलुसं' मयत घारत२ नियत सहित अने: ५।५ भनि 'समन्जिणित्ता' SIN- ४३१ मेजवाने 'सत्तवाससयाइं परमाउं पालित्ता' ७०० सातसे नीट मायुष्यने नागपीने 'कालमासे काल किच्चा' मृत्युने। समय भावतां भ२७ पाभीन 'चउत्थीए पुढवीए' याथी पृथ्वीमा , न्या 'उक्कोसेणं दससागरोवमटिइएमु णेरइएसु' कृष्ट १० इस सारनी स्थिति न२४ास छ तभी ‘णेरइयत्ताए । नाठोनी पर्यायथा 'उववण्णे' 4-1 थये। 'तए णं सुभदस्स सत्थवाहस्स भदा भारिया जाइणिदुया यावि होत्था' सुभद्र शनी भी नामनी पत्नी तिनिन्दु ती 'जाया२ दारगा विणिहायमावज्जति' तेनां माण। अपततांनी साथे १ तुरत भ२५५ पामतi di 'तए णं શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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