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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ४, शकटवर्णनम् 'यावदपरिभूतः, 'अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे' अधार्मिको यावद् दुष्पत्यानन्दः। 'तत्थ णं छणियस्स छागलियस्सबहूणं' तत्र खलु छनिकस्य छागलिकस्य बहूनाम् 'अयाण य' अजानां च-छागानां च, 'एलयाण य' एलकानां मेषाणां च, 'रोज्झाण य' रोज्झानां पशुविशेषाणाम् 'रोझ' इति भाषामसिद्धानाम् । 'वसभाण य' वृषभाणां च, 'ससयाण य' शशकानां च, 'पसयाण य' पसकानां मृगशिशूनां च, 'सूयराण य शूकराणां च 'सिंघाण य' सिंहानां च, 'हरिणाण य' हरिणानां च 'संभराण य साम्भराणां च 'महिसाण य' महिषाणां च 'सयबद्धाणि य' शतबद्धानि शतं शतमजादीन् योजयित्वा बद्धानि च, 'सहस्सबद्धाणिय' सहस्रबद्धानि-सहस्र सहस्रं योजयित्वा बद्धानि च 'जूहाणि य' यूथानि च 'वाडगंसि' वाटके परिधिरूपेण कण्टकादिना वेष्टितं स्थानं वाटः स एव वाटकस्तस्मिन्, 'सण्णिरुद्धाई' संनिरुद्धानि 'चिटंति' तिष्ठन्ति 'अण्णे य तत्थ अपरिभूत-किसी से पराभव नहीं पाता था। वह बडा 'अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे' अधार्मिक अधर्मसेवी एवं अधर्म से ही अपनी आजीविका चलाता था। यावत् दुष्प्रत्यानन्द-दूसरे को दुःख पहुंचाने में ही अपना आनन्द मानता था। 'तत्थ णं छणियस्स छागलियस्स बहूणं' वहां उस छन्निक कसाई के यहां बहुतसे 'अयाण य एलयाण य' बकरों का मेषों का, 'रोझाण य' रोझों का, 'वसभाण य' बैलों का 'ससयाण य' खरगोशों का 'पसयाण य' बालमृगों का सूयराण य' सूअरों का 'सिंघाण य' सिंहों का हरिणाण य' हिरणों का 'संभराण य' मांभरों का 'महिसाण य' एवं महिषों का 'सयबद्धाणि' सौ सौ के बंधे हुए 'सहस्सबद्धाणि' हजार हजार के बंधे हुए 'जूहाणि य' समूह 'वाडगंसि' बाडा-कांटों की बाड से वेष्टित स्थान में 'सण्णिरुद्धाई बन्धे हुए 'चिंटुंति' रहते थे। 'अण्णे य तत्थ बहवे पूर्ण तो भने ४थी ५२राम पामे तेवो नतो. अने मई १ 'अहम्मिए जाव दुप्पाडियाणंदे । मधमा अधर्मसेवी अधर्मथा पोतानी मावि सावत હતે, બીજાને દુઃખ પહોંચાડવામાં જ પિતાનો આનન્દ સમજાતે હતે. 'तत्थ णं छण्णियस्स छागलियस्स बहूणं' ते २२मा छन्नि साधन त्यां घine 'अयाण य एलयाण य' रामानां घटायाना 'रोझाण य' शीना 'वसभाण य' होना 'ससयाण य' सससामाना पसयाण य' यासभूगोन। 'सूयराण य' सूमराना 'सिंघाण य' सिडाना 'हरियाण य' ना 'सभराण य ' सामना ' महिसाण य' माना 'सयबद्धाणि' से सोना wial 'सहस्सबद्धाणि ' SA२ २ना मांसा 'जूहाणि' सभू वाडगंसि' मे।zierनी पायी विंटायेला स्थानमा 'सण्णिरूद्वाई' wian 'चिट्ठति' उता हता શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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