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________________ २६४ विपाकश्रुते चंपगलया' परशुनिकृत्तेव चम्पकलता-परशुना=कुठारेण निकृत्ता-छिन्ना चम्पकलतेव, 'धसत्ति' 'धस' इतिशब्दपूर्वकं ' धरणीतलंसि' धरणीतले भूमौ, 'सव्वंगेहि' सर्वा डैः सकलावयवैः-छिन्नकदलीस्तम्भवत् 'संणिवडिया' संनिपतिता। 'तए णं सा सुभदा मुहत्तरेणं ततः खलु सा सुभद्रा मुहूर्तान्तरण 'आसत्था' आस्वस्था ईषत्स्वस्था प्राप्तचेतनेत्यर्थः, 'समाणी सती, 'बहूहिं' बहुभिः मित्त-जाव-परिवुडा' मित्र यावत्-परिहता, अत्र यावच्छब्देन मित्रज्ञातिस्वजनसम्बन्धिपरिहतेत्यर्थो बोध्यः। 'रोयमाणी, कंदमाणी, विलवमाणी' रुदती अश्रूणि मुञ्चन्ती, क्रन्दन्ती-उच्चस्वरेण क्रन्दनं कुर्वती, विलपन्ती-आतस्वरेण करुणवचनं ब्रुवती, विजयमित्तस्स सत्यवाहस्य' विजयमित्रस्य सार्थवाहस्य 'लोइयाई लौकिकानि, 'मयकिच्चाई' मृतकृत्यानि 'करेइ' करोति । 'तए णं सा मुभद्दा अण्णया कयाई' ततः खलु सा सुभद्रा अन्यदा कदाचित् होती हुई 'परमुनियत्ता विव चंपगलया' तीक्ष्ण फरशा से निकृत्त-कटी हुई चंपकलता के समान धसत्ति धरणीतलंमि' 'घस'-इस शब्दपूर्वक धडाम से भूमि पर 'सव्यंगेहिं संणिवडिया' सवागों से पछाड खाकर गिर पड़ी। 'तए णं' गिरने के पीछे ‘सा सुभदा' वह सुभद्रा 'मुहुत्तंतरेणं आसत्था समाणी' जब थोडी देर के बाद सचेत हुई तो 'बहूहि मित्तजाव परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स' अनेक मित्रादि स्वजन परिजनों से परिवृत होती हुई, आंसू बहाती हुई, आक्रंदन करती हुई-उच्चस्वर से रुदन करती हुई, और आस्वर से करुणवचन बोलती हुई उसने अपने पति विजयमित्र सार्थवाह के 'लोइयाई मयकिच्चाई करेइ' मृत्यु के अवसर के समस्त लौकिक कृत्य ससह शोथी 'अप्फुण्णा समाणी' व्या ४७, मने 'परसुनियत्ता विव चपगलया' तीक्ष्ण १२शी - सीथी अपेक्षा पानी र समान 'धसत्ति धरणीतलंसि' '५' 240 श.पूर्व ५ प्रशन. भूमि ५२ 'सव्वंगेहिं संणिवडिया' સર્વાગથી પછાડ ખાઈને પડી ગઈ. 'तए णं' त्य२ पछी ‘सा सुभद्दा'सुभद्रा 'मुहुसंतरेण आसत्था समाणी' या थोडी पार पछी सन्येत ४ त्यारे 'बहुहि मित्त-जाव-परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी विलवमाणी विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स' मन भित्राक्ष સ્વજનથી વીંટાઈને રૂદન કરતી-આંસૂ ટપકાવતી, આક્રન્દન કરતી–ઉચા સ્વરથી રુદન કરતી, ખુબ વધારે વિલાપ કરતી-આ સ્વરથી કરૂણ વચન બોલતી તેણે પિતાના પતિ वियभित्र सार्थवानी 'लोइयाइं मयकिच्चाई करेइ' भृत्यु समयनी तमामells શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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