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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० २, उज्झितकपूर्वभववर्णनम् .. २२९ लावणिकैः=लवणादिसंस्कृतैश्च, 'मुरं च' सुरां-मदिरां च, 'महुं च' मधु च= पुष्पनिष्पन्नं मद्यविशेषं 'मेरगं' मेरकं मद्यविशेष तालफलनिष्पन्नम् , 'जाइं च' जाति च-मद्यविशेषं च, 'सी हुँ च' सीधु-मद्यविशेष--गुडधातकीसंभवं च, ‘पसणं च' प्रसन्नां च, प्रसन्ना द्राक्षादिद्रव्य जन्या मदिरा, तां च, 'आसाएमाणीओ' आस्वादयन्त्या ईपत् स्वादयन्त्यः, 'रिसाएमाणीओ' विस्वादयन्त्या=विशेषेण स्वादयन्त्यः, 'परिभाएमाणीओ' परिभाजयन्त्या विभागं कुर्वन्त्यः-अन्याभ्यो ददत्यः, 'परिधुंजे नाणीओ' परिभुञ्जानाः दोहलं' दोहदं, 'विणेति' विनयन्ति, विशेषेण अपनयन्ति, पूरयन्तीत्यर्थः, 'तं' तत्-तस्मान्, 'जइ णं' यदि खलु 'अहमवि बहूणं अहमपि बहूनां 'णयर-जाव विणेमि' नगर-यावत्-विनयामि, अत्र यावच्छब्दाद्-नगरगोरूपाणां सनाथाना-मनाथानां एवं 'लागिएहि य' नमक मिर्च आदि मसाला से सुसंस्कृत किये गये हों, उनके साथ 'सुरं च मदिरा को, ‘महं च' मधु एक प्रकार के मद्य को, 'मेरगं च' मेरक-ताडी को, 'जाइंच' जातिमद्यविशेष को, 'सीहुं च' सीधु-गुड एवं महुओं के संयोग से बनी हुई मदिरा को 'पसणं च प्रसन्ना-द्राक्षा आदि फलों से बनाई गई मदिरा को 'आसाएमाणीओ' रुच रुच कर आस्वादन करती हैं, 'विसाएमाणीओ' विशेषरीति से उसे खाती हैं, 'परिभाएमाणीओ' दूसरों को भी देती हैं, एवं परिभुजेमाणीओ' सब के साथ हिलमिल कर जो आनंद के साथ मनमाने रूप मे खाती हैं, और इस प्रकार जो 'दोहलं वि0ति' अपने गर्भ के प्रभाव से उद्भूत दोहले-मनोरथ को पूर्ण करती हैं, 'तं जइ णं अहमवि वहणं णयर० जाव विणेमि-त्ति कटु तो जो इसी तरह से मैं भी उन नगर के सनाथ अनाथ गाय 'लावणिएहि य ' भी, भरयां माह मसालाथी तैयार ४२वा उय, तेनी साथे 'सुरं च' महीने, 'महं च' मधुने , 'मेरगं च' भे२४ने तीने ' जाइंच ' तिने-मध विशेषने 'सीहं च सीधुने-गौण मने माना योगयी गती मशिने 'पसणंच' प्रसन्ना-हा जाथा तैयार ४२॥ी महिने 'आसाएमाणीओ' २१७-मुशीथी धीमे धीमे स्वा६ सहने पाय छे. विसाएमाणीओ' विशेष तिथी २६ वने माय छ, 'परिभाएमाणीओ' bflan-ने ५४५ मा छ, भने 'परिभुजेमाणीओ' सोनी साथै उनीमजान मान-पूर्व ४२७। प्रमाणे पाय छ, भने मा प्रमाणे रे"दोहलं विणेतिपाताना गर्म ना प्रमाथी उत्पन्न थयेा सा-मनोरथने पूर्ण ४२ छे. 'तं जइ णं अहमवि बहणं णयर० जाव विणेमि-त्तिकट्ठ तन्ने આ પ્રમાણે હું પણ એ નગરની સનાથનાથ ગાય આદિથી લઈને સાંઢ પર્વતના શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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