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विपाकश्रुते नगरगवीनां नगरवलीवर्दानां नगरपड्डिकानां नगरमहिषीणां नगरमहिषाणां नगरवृषभाणाम्, ऊधःस्तनवृषणपुच्छककुदादिभिरग्निपक्कैस्तलितैभर्जितैः परिशुष्कलेवणादिसंस्कृतैः सहानेकविधां सुरां मधु चास्वादयन्ती विस्वादयन्ती परिभाजयन्ती परिभुञ्जाना दोहदं विनयामीत्यर्थों बोध्यः । इति कृत्या इति मनसि निधाय तंसि 'दोहलंसि अविणि जमागंसि' तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने-अपूर्यमाणे सति, 'मुक्का' शुष्का 'भुक्खा' बुभुक्षिता निम्मंसा' निर्मासा 'ओलग्गा' अबरुग्णा 'ओलग्गसरीरा' अबरुग्णशरीरा, 'णित्तेया' निस्तेजाःगतकान्तिः, 'दीणविवण्णवयणा' दीनविवर्णवदना=दीन-दैन्ययुकम्, अत एव विवर्ण-शोभारहितं, वदनं-मुखं यस्याः आदि से लेकर सांड पर्यंत के जानवरों के काटे हुए एवं संडासी द्वारा पकड कर अग्नि में पकाये हुए, तले हुए, भुजे हुए,सुकाये हुए, नमक आदि मसाला से तैयार किये हुए ऊधस से लेकर सास्नातक के मांस को सुरा. मधु, मेरक आदि जातिवाली मदिरा के साथ खाऊँ, खिलाऊँ और विभक्तकर दूसरों को भी दं, इस प्रकार मैं अपना दोहद पूर्ण करूँ । इस प्रकार उसने विचार किया । परन्तु 'तसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि' उस के उस दाहले की पूर्ति नहीं हुई, इसलिये वह दिन प्रतिदिन 'मुका' मूकने लगी, और 'भुक्खा' भूखी रहने लगी, 'निम्मंसा पर्याप्त भोजन नहीं खाने के कारण उसका शरीर भी मांसरहित हो गया और वह 'ओलग्गा' 'ओलग्गसरीरा' बीमार जैसी रहने लगी, 'नित्तेया' कांति उसकी फीकी पड गई, 'दोणविवण्णवयणा पंडुइयमुही' मुख भी उसका दीन और शोभा से रहित होता हुआ જાનવરના કાપેલા અને સાણસીથી પકડીને અગ્નિમાં પકાવેલા, તળેલા, ભૂજેલા, સુકાવેલા, અને મીઠા આદિ મસાલાથી તૈયાર કરેલા ઉધસથી લઈને સાસ્ના (ગળાની નીચે લટકતી ચામડી) સુધીના માંસને સુકા, મધુ, મેક આદિ જાતિની મદિર સાથે ખાઉં, ખવરાવું, અને વહેંચીને બીજાને આપું આ પ્રકારે હું પોતાના દેહુદને પૂર્ણ ४३.-मा ४२ तेथे विय२ यो परतु 'तंसि दोहलंसि अविणि जमाणंसि' मुक्का मुक्खा निम्मंसा ओलग्गा ओलग्ग-सरीरा नित्तया दीणविवण्णवयणा पंडुइयमुही जाव झियायइ' तेन ते मानी पूर्ति थ नलि, ते माने 'मुक्का' हिन-प्रतिदिन सूqn atil, मने 'भुक्खा' मी २४वा लागी, 'निम्मंसा' पूरी રીતે ભોજન નહિ ખાવાથી તેનું શરીર પણ માંસ વિનાનું થઈ ગયું, અને તે ' ओलग्गा ओलग्गसरीरा' मामा२ २ २८ जी, 'नित्तेया' iतिही थने ही पडी ४ 'दीण विवण्णवयणी पंडुइयमुही' भु५ ५५ हान भने
શ્રી વિપાક સૂત્ર