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________________ %3D वि. टीका, श्रु० १, अ० २, उज्झितकपूर्वभव विषये गौतमस्य प्रश्नः २१९ 'मज्झं-मज्झेणं' मध्यमध्येन, 'जाव पडिदंसेइ' यावत् प्रतिदर्शयति, धर्माचार्यस्य भगवतो महावीरस्य पुरतः स्थापयित्वा दर्शयतीत्यर्थः; 'पडिदंसित्ता' प्रतिदय-भैक्षं दर्शयित्वा, 'समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ' श्रमणं भगवन्तं महावीरं चन्दते, नमस्पति, 'बंदित्ता णमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा, 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, 'वयामी' अवादीत्-‘एवं खलु अहं भंते !' एवं खलु अहं हे भदन्त ! 'तुब्भेहिं अ०भणुण्णाए समाणे वाणियग्गाम' युष्माभिरभ्यनुज्ञातः सन् वाणिजग्रामं 'जाव तहेव निवेएई' यावत् तथैव निवेदयति, ‘से णं भंते ! पुरिसे' स खलु हे भदन्त ! पुरुषः 'पुव्वभवे के आसि' पूर्वभवे क आसीत् ? 'जाव पच्चणुब्भवमाणे' यावत् प्रत्यनुभवन, अत्र यावच्छब्देनप्रथमाध्ययनोक्तत्रयोदशसूत्रस्थपाठोऽनुसन्धेयः-'किंणामए वा किंगोत्ते वा कयरंसि वाणियग्गामस्स णयरस्स मज्झं-मज्झेणं जाव पडिदंसेइ' उसे लेकर उस वाणिजग्राम नगर के ठीक बीचोंबीच होते हुए अपने स्थान पर आये। आकर प्राप्त भिक्षा प्रभु को दिखलायी। दिखलाने के बाद उन्हों ने 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसई श्रमण भगवान महावीर को वंदन और नमस्कार किया, 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी' वंदना और नमस्कार करने के अनन्तर फिर उन्होंने प्रभु से इस प्रकार कहा-' एवं खलु अहं भंते ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे वाणियग्गामं जाव तहेव निवेएइ' हे भदन्त ! मैं आप से आज्ञा पाकर जब भिक्षाचर्या के लिये वाणिजग्राम नगर में गया तब वहां राजमार्ग पर इस पूर्वोक्त प्रकार का दृश्य देखा। प्रभो ! कहिये, 'सेणं भंते ! पुरिसे पुच्चभवे के आसि ? जाव पञ्चणुब्भवमाणे विहरइ' वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? 'जाव' शब्द से 'किंणामए' इत्यादि पदों का ग्रहण किया गया है । उन का ग्गामस्स णयरस्स मज्झं-मज्ज्ञेणं जाव पडिदं सेइ' मा दीपा ५७ तेथे વાણિજગ્રામ નગરના બરાબર મધ્ય ભાગના રસ્તા પર થઈને પોતાના સ્થાન પર આવ્યા, भावाने भणेसी निक्षा प्रभुने मतावी. पछी तेमणे 'समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ' श्रभा भगवान महावीरने हैन मने नम२४२ ४ा, 'वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी' पहना भने नभ२.४२ रीने पछी तेमणे प्रभुने मा ५२ ४ - 'एवं खलु अहं भंते! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे वाणियग्गामे जाव तहेव निवेएइ महन्त ! मापनी माशा मेवाने न्यारे निक्षायर्या ४२॥ भाटे વાણિજગ્રામ નગરમાં ગમે ત્યારે ત્યાં રાજમાર્ગો પર આ પૂર્વોકત પ્રકારનું એક દૃશ્ય यु प्रभु ! ४); “से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के आसि जाव पञ्चणुभवमाणे विहरइ' ते पुरुष पूलभ ए तो ? भने तेनुं नाम भने गोत्र शु શ્રી વિપાક સૂત્ર
SR No.006339
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages809
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vipakshrut
File Size44 MB
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