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________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू. ६ परिग्रहविरमणनिरूपणम् 6 4 6 अविरतिषु = अविरतिरूपेण भगवता कथितेषु प्राणातिपातादिषु च, तथा-'अण्णेसु य' अन्येषु च ' एवमाइएस' एवमादिकेषु = एवं विधेषु ' बहुसु हाणे ' बहुषु स्थानेषु = अनेक विधेषु पदार्थेषु संख्यास्थानेषु वा चतुस्त्रिंशदादिषु कीदृशेष्येषु ? ' जिणपसत्थेसु ' जिनप्रशस्तेषु = जिनकथितेषु, अतएव - ' अवितहेसु ' अवितथेषु सत्येषु, पुन:- सासयभावेसु शाश्वतभावेषु = ओघतोऽक्षयस्वभावेषु, अतएव ' अवट्ठिएस ' अवस्थितेषु सर्वदा भाविषु ' संकं' शङ्कां = सन्देहं, 'कखं ' काङ्क्षा=परमतवाञ्छां ' निराकरिता ' निराकृत्य दूरीकृत्य श्रमणैः, 'सदहति ' श्रद्दधाति ' भगवओ ' भगवतो जिनस्य सासणं शासनम् कीदृशः सन् श्रमणो जिनस्य शासनं श्रघातीत्याह अणियाणे ' अनिदानः = देवद्धर्यादिवाञ्छारहितः, ' अगारवे ' अगौरवः = ऋद्रयादिगौरववर्जितः, अलुद्धे ' अलुब्धः = विषयेष्वलम्पट : 'अमूढे ' अमूढः, तथा - ' मणोवयणकायएकाग्रतारूप प्रणिधानों में ( अविरइसु ) भगवान के द्वारा अविरतरूप से कथित प्राणातिपात आदिकों में तथा ( अण्णेसु य एवमाइएस) और भी इसी तरह के दूसरे (बहुसु द्वाणेसु) अनेक पदार्थों में अथवा (जिण पसत्थेसु) चौतीस आदि संख्यास्थानों में जो कि जिनकथित हैं और इसी कारण ( अतिसु ) जिन में असत्यता का थोड़ा साभी स्थान नहीं, अर्थात् सर्वथा सत्य हैं, तथा (सासयभावेसु) सामान्यकी अपेक्षा जिनका अक्षय स्वभाव है, और इसीसे ( अवट्ठिएस) जिनकी सत्ता सदा रहती है उनमें (संकं) शंका - संदेहको (क) कांक्षा - परमतवांछा को ( निराकरिता ) दूर करके जो भ्रमण ( अनियाणे ) निदान - देवयदि प्राप्तिकी इच्छा से विहीन बन कर ( अगारवे ) ऋद्धयादि गौरव से रहित हो कर (अलुद्धे ) विषयों में लंपटतासे रिक्त होकर और उति प्राणातिपात आदि तथा से ४ "" " 66 66 = अविरइसु " लगवान द्वारा अविरत अण्णेसु य एवमाइएसु " जीन पशु પ્રકારના बहुसु हासु અનેક પદાર્થોમાં અથવા जिणपसत्थेसु ચાવીસ આદિ સંખ્યા સ્થાનામાં કે જે જિન કથિત છે અને એજ કારણે अति " भेभनामां असत्य 66 66 - શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર " ८" ८४१ 66 તથા सासय मने तेथी ४ शअस हेडने " તાનું જરા પણ સ્થાન નથી એટલે કે જે સથા સત્ય છે, भावेसु ” सामान्यनी अपेक्षा मे निनो अक्षय स्वभाव छे, " अवट्टिएसु" लेनी सत्ता सहा रहे छे, तेमनाम “ संकं " " कखं " अंक्षा - परभत वांयनाने ' निराकरिता ' ६२ अरीने ने श्रभाणु " अनियाणे " निधान- देवर्याहि प्राप्तिनी छाथी रहित मनीने “ अगारवे " યાદિ ગૌરવથી રહિત થઈ ને अलुध्वे " विषयोनी साससाथी रहित
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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