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________________ ८४२ __ प्रश्रव्याकरणसूत्रे गुत्ते' मनोवचनकायगुप्तश्च श्रमणो भवति । अथाऽपरिग्रहसंवरं वृक्षोपमया वर्णयन्नाह -'जो सो' यः सः संवरपादपो यः सः स चरमं संवरद्वारमिति योगः कीदृशः संवरपादपः इत्याह—'वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो' वीरवरवचनविरतिप्रविस्तरबहुविधप्रकारः वीरवरस्य भगवतो महावीरस्य यद्वचनम् आज्ञा, ततः सकाशाद् या विरतिः परिग्रहानिवृत्तिः सैव प्रविस्तरो विस्तरयुक्तो बहुविधः अनेकविधः-विचित्रविषयापेक्षया क्षायोपशमाद्यपेक्षया च पादपपक्षे मूलकन्दाद्यपेक्षयाऽनेकविधः प्रकारः भेदो यस्य सः, तथा- संमत्तविसुद्धबद्धमूलो' सम्यक्त्वविशुद्धबद्धमूल: सम्यक्त्वमेव-सम्यग्दर्शनमेव विशुद्धं = बद्धं मूलं यस्य ( अमूढे ) मूढता से वर्जित होकर तथा (मणवयणकायगुत्ते ) मन, वचन और काय की सरलता से संपन्न बनकर (भगवओ) भगवान् जिनेन्द्र के (सासणं ) शासन का (सद्दहइ ) श्रद्वान करता है वही श्रमण सच्चा श्रमण है। अब सूत्रकार इस अपरिग्रहसंवर का वृक्ष की उपमा देकर वर्णन करते हैं-(जो सो ) जो यह अन्तिम संवरद्वार रूप संवरवृक्ष है वह ( वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो) अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की आज्ञा से जो परिग्रह से जीव की निवृत्ति होती है उस रूप है । यह परिग्रह से निवृत्ति ही इस वृक्ष के विस्तृत अनेक प्रकार-भेद हैं । तात्पर्य इस का यह है कि जिस प्रकार नूल. कन्द आदि की अपेक्षा को लेकर एक ही वृक्ष विविध प्रकारों वाला माना जाता है उसी प्रकार यह परित्यागरूप अपरिग्रह भी विचित्र विषयों के त्याग की अपेक्षा और कर्मों के क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार का होता है । (संमत्तविसुद्धबद्धमूलो ) इस वृक्ष कामनीने अने, “असूढे" भूटताथी २डित ४ने तथा “ मणवयणकायगुत्ते " भन, क्यन मने आयनी सताथा युद्धत मनाने “ भगवओ'' भावान नि.. न्द्रना “ सासण" शासनतुं “सद्दहइ'' श्रद्धान ४२ छेते श्रमा १ सायोश्रम छे. હવે સૂત્રકાર આ અપરિગ્રહ સંવરને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વર્ણન ४२ छ-"जो सो" 2 मा छेवटना परिवार ३५ अपरिग्रड स१२ वृक्ष छते “वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो” मतिम तीर्थ ४२ मावान મહાવીરની આજ્ઞાથી જે પરિગ્રહથી જીવની નિવૃત્તિ થાય છે તે રૂપ છે. તે પરિગ્રહથી નિવૃત્તિ લેવી એ જ આ વૃક્ષના વિસ્તૃત અનેક પ્રકાર–ભેદ છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ મૂળ, કંદ આદિની અપેક્ષાએ એક જ વૃક્ષ જેમ અનેક પ્રકારે વાળું મનાય છે તેમ આ પરિત્યાગરૂપ અપરિગ્રહ પણ વિચિત્ર વિષએના ત્યાગની અપેક્ષાએ તથા કર્મોના ક્ષોપશમ આદિની અપેક્ષાએ અનેક प्रानुं डाय छे. “संमत्तविसुद्धबद्धमूलो" सभ्यश न मा वृक्षतुं विशुद्ध શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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