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________________ ७९३ सुदर्शिनी टीका अ०४ स०३ ब्रह्मचयाराधनफलम् तथा-' सव्वसमुहमहोदहितित्थं । सर्व मुद्रमहोदधितीर्थम् -सर्वे च ते समुद्राः सर्व समुद्रास्तेषु महान उदधिः स्वपाभूरमणः समुदस्तत्तुल्य विशालत्वात्संसारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थमिव-पारगमनाय नौकेव यत्तत्तथाऽप्ति ॥ १ ॥ ___ 'तित्थगरेहिं । इत्यादि-'तित्थगरेहिं ' तीर्थकरैः जिनैः ‘सुदेसियमगं' सुदेशितमार्गम्-सुदेशितः सुदर्शितः मार्गः=गुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिस्तत्तथा, तथा-' नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं' नरकतिर्यग्विवर्जितमार्ग-नरकस्य= नरकगतेः, तिरश्च तिर्यगतेश्च विवर्जितःप्रतिरोधितो मार्गो गतिर्येन तादृशम् । तथा-' सव्वपधित्तसुनिम्मियसारं ' सर्वपवित्रसुनिर्मितसारं सर्वपवित्राणि-सर्वाणि पावनानि सुनिमितानि=सुविहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सकलव्रत सर्प उसके लिये हार जैसा बन जाता है और विष भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है । यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो श, भी मित्र बन जाता है। (सव्वसमुदमहोदहितित्थं) समस्त समुद्रों में अंतिम स्वयंभूर-- मणसमुद्र एक बहुत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से संसार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥१॥ (तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं) तीर्थकर भगवंतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविवजियमगं) इसके प्रभाव से नरकगति और तियश्चगति का मार्ग रुक जाता है (सव्वपवित्तसुनिम्मियसारं ) तथा જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આરાધક હોય છે તેને માટે સાપ હાર જેવો બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવું થઈ જાય છે. ब्रह्मययन सा प्रभाव के शत्रु ५५ भित्र मनी तय छ, “सव्वस मुद्दमहोदहितित्थं " सजा समुद्रोमा मातिम २वय भूरभा समुद्र से पणे वि સમુદ્ર છે-તેના જે વિશાળ હોવાથી સંસાર પણ એક મહાસાગર જે છે, તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહ્મચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે કે ૧ | “तित्थगरेहिं सुदेसियमग्गं" तीथ ४२ मगवानी तेना पासन भाट गुति माहि उपाय मता०छे. “ नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं ” तेना प्रमाथी न२४गति भने तियय तिनो भाग सी. लय छे. “ सव्वपवित्त सुनिम्मियसारं” अने तेना प्रभार सौने प्रवित्र मने सारभूत मनावी है छ, मेटले 3 मा त स ताने पवित्र ४२नाई छ. "सिद्धविमाणअवंगुयदारं " तथा मोक्ष आतिनु मने अनुत्तर विमानानु ६१२ तेनाथी Bus at શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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