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________________ मुदर्शिनी टोका अ०४ सू०१ 'विनय' ब्रह्मचर्य स्वरूपनिरूपणम् ७७९ हदेसगं च ' सुगतिपथदेशकं च सुगतेः स्वर्गापवर्गस्य पन्थाः-सुगतिपथस्तस्य देशकं-दर्शक यत्तत् तथा-' लोगुत्तमं च ' लोकोत्तमं च-लोकत्रयश्रेष्ठश्च 'वयमिणं' व्रतमिदम्-इदं ब्रह्मचर्यरूपं व्रतं 'पउमसरतलागपालियभूयं' पद्मसरस्तडागपालिभूतम् -पद्मप्रधानः सरस्तडागः-पद्मसरस्तडागः, पद्मसरस्तडागइव सुखदत्वेन प्रमोदकत्वेन हरत्वेन च समुपादेयत्वाद् धर्मोऽपि पद्मसरस्तडागः, तस्य पालिभूतंरक्षकत्वेन पालिकल्पं यत्तत् , तथा ' महासगडअगर तुंबभूयं' महाशकटारकतुम्बभूतम्-महाशकटस्य:अरका इव-अराइव अरकाःक्षान्तादयोगुणास्तेषां तुम्बभूतम्, आधार भूतम् तथा-'महाविडिमरुक्खक्खंधभूय' महाविटपवृक्षस्कन्धभूतम्-महान्तो विटपाः शाखा पदेसगं च ) और उसे स्वर्ग और अपवर्गरूप सुगति के मार्ग को दिखलाता रहता है। इसीलिये ( बयमिणं ) यह व्रत ( लोगुत्तमं च) लोकवय में श्रेष्ठ है । तथा यह ब्रत (पउमसरतलाग पालिभूयं) पद्मप्रधान सरोवर और तडाग की पालि जैसा है, अर्थात् सुखद होने के कारण, प्रमोद कारक होने के कारण, और मन को हरण करने वाला होने के कारण जैसे पद्मप्रधान सरोवर और तडाग समुपादेय होते हैं उसी प्रकार सुखदाता प्रमोदक और मनोहर होने के नाते धर्म भी समुपादेय होता है-अतः धर्म भी पद्मप्रधान सरोवर और तडाग जैसा है। उस धर्म रूप सरोवर और तडाग का यह रक्षक होने के कारण पालि-पाल जैसा है। तथा ( महासगडअरगतुंबभूयं ) महाशकट के आरों के समान क्षान्त्यादिक गुणों का यह तुम्वभूत-आधारभूत है । तथा (महाविडिमरुक्खक्खंधभूयं) महाशाखा शाली वृक्ष के समान आश्रितों सत२ २।४ छ. “सुगइपदेसगंच” भने तेने २१॥ भने ५५ ३५ सुमतिना भाग शक्ति २ छे. तेथी “वयमिणं " मावत " लोगुत्तमंच" त्रो सोभा श्रेष्ठ छ. तथा मा त “पउमसरतलागपालिभूयं” भोथी युत सश१२ અને તળાવની પાળ જેવું છે. એટલે કે સુખદ હોવાને કારણે, પ્રમોદકારક હોવાને કારણે, અને મનોહર હોવાને કારણે જેમ પદ્મપ્રધાન સરોવર અને તળાવ સમુપાદેય હોય છે તે જ પ્રકાર સુખદાતા, પ્રમાદક અને મનહર હોવાને કારણે ધર્મ પણ સમુપાદેય હોય છે. તેથી ધર્મ પદ્મયુક્ત સરોવર અને તળાવ જેવો છે. તે ધર્મરૂપ સરેવર અને તળાવનું તે (બ્રહ્મચર્ય રક્ષક हापाथी पारेछ. तथा “ महासगडअरगतुंबभूयं " मा १४2-130-नी रीना समान क्षान्त्यादि गुरनु ते तुमभूत छ. तथ! " महाविडिमरुवखक्खंधर्भूयं " मा मात्र वृक्षनी भ माश्रितानु ५२भ सुमारी पाथी શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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