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________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ भू०८ 'शय्यापरिकर्मवर्जन'नामकतृतीयभावनानिरूपणम्७५५ सततम्-निरन्तरम् , 'अज्झप्पज्झाणजुत्ते' अध्यात्मध्यानयुक्त-आत्मानमधिकृत्य अध्यात्मम् आत्मालम्बनरूपं यद्ध्यानं तेन युक्तः समन्वितः, तथा-' समिए' समितः समितिभिर्युक्तः 'एगे' एकः= एकाकी रागद्वेषरहितः, 'धम्म' धर्मश्रुतचारित्रलक्षण ' चरेज्ज' चरेत् आचरेत् । उपसंहरन्नाह-' एवम् ' प्रकारेण 'सिज्जासमिइजोगेण ' शय्यासमितियोगेन भावितोऽन्तरात्मानित्यम् , ' अहिकरण करणकरावणपावकम्मविरए' अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरतः-अधिकरणं शय्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादीनां छेदनभेदनरूपं यत्सावा कर्म, तस्य यत्स्वयं करणम् , अन्यतश्च कारणं उपलक्षणत्वादनुमोदनं च तद्रूपं यत्पापकर्म ततो विरतोनिवृत्तो यः स तथोक्तः, तथा-दत्तानुज्ञातावग्रहरुचिः दत्तानुज्ञातैषणीयपीठफलकादेरुपभोगकारी भवति ॥ सू-८ ॥ (समाहिबहुले ) चित्त की स्वस्थतारूप समाधि की प्रचुर मात्रा से सहित होने के कारण समाधि बहुल, बना हुआ वह साधु (फासयंतेकाएणधीरे ) परीषहों को सहते हुए शरीर से धीर-अक्षोभ्य बना रहता है। तथा (सययं अज्झप्पज्जाणजुत्ते) निरन्तर आत्मावलम्बन रूप ध्यान से युक्त बना हुआ वह साधु (समिए) पांच समिति के पालन से (एगे) अकेला रागद्वेष रहित होकर (धम्मं चरेज्ज) श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण करता रहता है ( एवं) इस प्रकार से (सेज्जासमिइजोगेण ) शय्यासमिति के योग से (भाविओ अंतरप्पा) भावित हुआ जीव (निच्च) नित्य ( अहिकरणकरणकारणपावकम्मविरए) शय्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन रूप सावध अनुष्ठान के करने दूसरों द्वारा कराने तथा अनुमोदना रूप पापकर्म से निवृत्त २णे सक्तमस, तथा “ समाहिबहुले ” यित्तनी २१२थता३५ समाधिया सत्यत प्रमाणुमा युत डावाने १२णे समाधिपहुस, मने ते साधु " फासयंते काएणधीरे” परीषडाने सहन ४२त ४२तां शरीरथी धार-क्षोसहित २ छ तथा " सययं अज्झप्पज्जाणजुत्ते " निरंतर आत्मासन३५ ध्यानथी युक्त मनेस ते साधु " समिए " पांय समितिना पासनथी " एगे " मेसी रागद्वेष २हित थने “ धम्मं चरेज" श्रुतयारित्र३५ धनु माय२५ ४ा ४२ छे “ एव" मा रीते “सेज्जा समिइ जोगेण" शय्यासमितिना योगयी “भाविओ अंतरप्पा" सावित थये ७५ " निच" नित्य "अहिकरणकरणकारणपावकम्मविरए” शय्याપરિકલ્પનાથે વૃક્ષાદિના છેદન ભેદનરૂપ સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરતાં, બીજા પાસે Aqdi तथा मनुभाहना३५ ५।५४थी निवृत २४ तय छे. तथा “ दत्तम શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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