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________________ ૭૨૨ प्रश्रव्याकरणसूत्रे कीदृशो मुनिरिदं व्रतं नाराधयती ? त्याह-'जे वि य ' इत्यादि मूलम्-जे वि य पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबलदंडगरयहरणनिसेज चोलपट्टगमुहपोत्तियपाय पुंछणाइ भायण भंडोवहिउवगरणं असंविभागीअसंगहरुई, तवतेणे य वइतेणे य रूवतेणे य आयारतेणे य भावतेणे य सहकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकरे सया अप्पमाणभोई सययं अणुबद्धवरे य निच्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिणं ॥ सू०३ ॥ टीका-'जे विय' योऽपि च मुनिः 'पीढफलगसेज्जासंथारगवत्थपायकंबलचोलपट्टगरयहरणमुहपोत्तियपायपूछणाइभायणभंडोवहिउवगरणं ' पीठफलकशय्यासंस्तारकवस्त्रपात्रकम्बलचोलपट्टकरजोहरणमुखवस्त्रिकापादप्रोञ्छनादि - भाजनभाण्डोपध्युपकरणम् एषणागुणविशुद्धिलब्धं पीठफलकादिकं लब्ध्वेति गम्यते, तस्य असंविभागी-अविभागकारी-आचार्यग्लानादिभ्यः पीठफलकादीन् अविभज्यैव स्वार्थबुद्धया स्वयमुपभोक्ता भवति स इदं व्रतं नाराधयतीत्यग्रेण किसीकी चुगली नहीं करना चाहिये। तथा (मच्छरियं) साधु को इर्ष्याभाव का भी परित्याग कर देना चाहिये ॥सू-२॥ किस प्रकार का मुनि इस व्रत की आराधना नहीं कर सकता है इस बात को कहते हैं-'जे वि य' इत्यादि। टीकार्थ-(जे वि य) जो मुनि एषणागुण की विशुद्धि से प्राप्त पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, कंचल, दंड, रजोहरण, निषद्या, चोलपट्टक, सदोरकमुखवस्त्रिका, पादप्रोग्छन आदि, तथा भाजन, भांड, उपधि, इन सब उपकरणों को प्राप्त करके उनका विभाग ण्णं " साधुसे नी. या ४२वी ने नही तथा “मच्छरियं ” साधु ध्यानावना ५५५ परित्याग ४२व नसे ॥ -२ ॥ કેવા મુનિ આ વ્રતની આરાધના કરી શકતા નથી તે વાત હવે સૂત્ર१२ र छ-"जे वि य” इत्यादि 21-"जे वि य” रे मुनि मेष! शुनी विशुद्धियी प्रा ये ची3 ५४४, शय्या सस्ता२४, १स, पात्र, ४, ६ २०२१, निषधा, यासपट्ट, २१ સહિતની મુહપત્તિ, પાદછન આદિ તથા ભાજન, ભાંડ, ઉપધિ એ બધાં શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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