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प्रश्रव्याकरणसूत्रे
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दोषसूचकं, परुषं परमर्मोद्धाटकं, कटुकम् = उद्वेगजनकम् चपलम् = असमीक्ष्य प्रोक्तं यद् वचनं तस्मात् - मुनीनां परिरक्षणाथम्, अर्थात् मुनिभिरीदृशं वचनं न वाच्यमिति हेतो: ' भगवया ' भगवता ' सुकहिये ' सुकथितम् । कथम्भूतं प्रवचनं सुकथितम् ? इत्याह- ' अहियं ' आत्महितम् - आत्मनो हितकारकम्, 'पेच्चाभावियं ' प्रेत्य भाविकं = जन्मान्तरेऽपि शुभफलदायकम्, अतएव 'आगमेसिभद्द" आगमिष्यद् भद्रम्-भविष्यत्कल्याणकारकम् तथा-' सुद्धं ' शुद्धं निर्दोषत्वात्, पुनः ' नेयाज्यं ' नैयायिकं = न्याययुक्तम्, वीतरागभाषितत्वात् तथा-' अक्कुडिलं ' अकुटिलम् = ऋजुभावजनकत्वात् ' अणुत्तरं 'अनुत्तरम् - सर्वश्रेष्ठत्वात्, तथा - सब्वदुक्खपावाणं सर्वदुःखपापानां सकलदुःखजनकज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणां 'विउसमणं' व्युपशमनम् = सर्वथा प्रशमनकारकम् । एतादृशं प्रवचनं भगवता कथितमित्यर्थः || सू-३ ॥
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कटुक, चपल, वचनों से मुनिजकों की रक्षा होती रहे इस अभिप्राय से ( भगवया ) भगवान् ने ( सुकहियं ) अच्छी तरह से प्रतिपादित किया है । असद्भूत अर्थ को कहने वाला बचन अलीक, पर दोष सूचकवचनपिशुन, पर के मर्मका उद्घाटक वचन परुष, उद्वेग को पैदा करने वाला वचन कटुक, और विना विचारे बोला गया वचन चपल कहलाता है । यह प्रवचन ( अन्तहियं ) आत्मा का हितकारक है तथा ( पेच्चाभावियं ) जन्मान्तर में भी शुभफल का देनेवाला है । (आगमेसिभ६ ) इसीलिये इसे भविष्यत् में कल्याणकारक कहा गया है । ( सुद्धं ) इस प्रवचन में किसी भी प्रकार का पूर्वापरविरोधरूप दोष नही होने से ये शुद्ध हैं । (नेयाज्यं ) यह वीतराग द्वारा भाषित होने के कारण न्याययुक्त है। तथा ( अकुडिलं ) इससे ऋजुभाव उत्पन्न हो जाता है इसलिये यह अकुटिल है । (अणुत्तरं ) इस के जैसा उत्तम और कोई
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उठोर, उडवां, यया વનાથી મુનિજનેનિ રક્ષા થયા કરે તે ઉદ્દેશથી 16 भगवया " लगवाने " सुकहियं " सारी रीते प्रतिपादन अर्यु छे मसहूलूत अर्थने नाई वयन अलीक, परदोष सूर्य वयन पिशुन, जीलना भर्मने पातु वथन परुष, उद्वेग पेहा उरनार वयन कटुक अने विद्यार्या विना મેાલાયેલ વચન ૨પણ કહેવાય છે. આ પ્રવચન अत्तहियं " आत्माने भाटे हितार छे तथा " पेच्चाभावियं " ४न्मांतरभां पशु शुभ इज हेनाइ छे. " आगमेसिभद्द" ते अरतेने लविष्यमा उदयालु २५ हर्शाव्युं छे. “ सुद्धं આ પ્રવચનમાં કાઈ પણ પ્રકારે પૂર્વાપરવાધરૂપ દોષ નહીં હોવાથી તે ' नेयाज्यं " ते वीतराग द्वारा उडेवायेंस होवाथी न्याययुक्त छे. अकुडिलं " तेनाथी ऋन्नुभाव-सरणता - उत्पन्न थाय छे तेथी ते अडुटिस अणुत्तर " तेनानेवु श्रेष्ठ जीभू हुई पशु नथी तेथी ते अनुत्तर छे.
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शुद्ध 2. તથા
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શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર