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________________ ६५६ प्रश्रव्याकरणसूत्रे सत्येन च तत्ततेल्लतउलोहसीसगाई' तप्ततैलत्रपुलौहशोशकानि, तैलं प्रसिद्धम् त्रपु-रङ्गम् , लौहम् अयं, शीशकं प्रसिद्धम् , तप्तानि उत्कलित्तानि यानि तैल पुलौहशीशकानि तानि तथोक्तानि छिवंति' स्पृशन्ति, 'धरेति' धारयन्ति हस्ते किन्तु तेन ' न डझंति' न दह्यन्ते। तथा- 'सच्चेण परिग्गहिया' सत्वेन परिगृहिता मनुष्याः, : पव्वयकड गाहिं' पर्वतकटकेभ्यः पर्वतप्रदेशेभ्यः 'मुच्चंते' मुच्यन्ते पात्यन्ते, तथापि न य मरंति' न च म्रियन्ते । तथा-' सच्चवाई' सत्यवादिनः 'असिपंजरगया वि' असिपञ्जरगता अपि-चतुर्दिक्षु खड्ग हस्तशत्रुपुरुषपरिवेष्टिता अपि सर्वतः खङ्गेषु पतत्स्वपीत्यर्थः, 'अणहाय य ' अनधा एवम् अक्षतशरीराएव 'समराओ' समरात् , 'णियंति' निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति । तथा 'सच्चवाई ' सत्यवादिनः पुरुषाः ‘वहबंधामिओगवेरघोयेहिं ' वधबन्धाभियोग नहीं है । (सच्चेण य मणुस्सा तत्तनेल्लतउलोहसीसगाई) सत्य से मनुष्य तप्त उबलते हुए तेलको, पिघले हुए रोगे को, लाल हुए लोहे को, गले हुए शीशे को (छिचंति) छू लेते हैं, अर्थात्-शीतल करता है(धरेंति) उन्हें हाथमें ले लेता हैं, परन्तु (न डझंति ) ये उनसे जलते नहीं हैं। ( पव्वयकडगाहिं मुच्चंते न य मरंति सच्चेणं परिग्गहिया ) सत्यवादी मनुष्य को यदि पर्वत के ऊपर से भी नीचे धकेल दिया जावे तो भी वह सत्य के प्रभाव से मरता नहीं है-सर्वथा बच जाता है। इसी तरह जो ( सच्चवाई ) सत्यवादी मनुष्य होते हैं वे (असिपंजरगया) चारों ओर से युद्ध में तलवारों को लिये हुए अपने शत्रुओं द्वारा घेर भी लिये जावें तो भी वे ( अणहाय ) अक्षत शरीर ही (णिइंति ) चाहे कितनी ही तलवारों के बार उन पर पड़ रहे हों, और वे उस युद्धभूमि में सुरक्षित निकल आते हैं। और (वहबंधाभिओगवेरघोरेहिं पमुचंति य ) भास भगत नथी. " सच्चेण य मणुस्सा तत्ततेलतउलोहसीसगाई" सत्यथी માણસ ઉકળતા તેલને, લાલચોળ લેઢાને અને ઓગાળેલ સીસાને પણ સ્પર્શ अश श छ. “धरे ति" तेभन डायमi esa छे ५॥ “ न उज्झति" तेस। तेनाथी हाता नथी. "पव्वयकडगाहिं मुच्चंते न यमरति सच्चेण परिग्गहिया" સત્યવાદી મનુષ્યને જે પર્વતના ઉપરથી નીચે ધકેલી દેવામાં આવે તે પણ સત્યના પ્રભાવથી મરતો નથી–તેને વાળ પણ વાંકો થઈ શકતો નથી. मा शत रे “ सच्चवाई" सत्यवाही मनुष्य हाय छ “ असिपंजरगया" युद्धमा ચેમેરથી હાથમાં તલવાર ધારણ કરેલ શત્રુઓ વડે ઘેરાઈ જાય તો પણ ' अणहाय " मक्षत शरी२४ " णिति" गमे तटसी तसाशना तेना પર પડવા છતાં પણ તે રણમેદાનમાંથી સુરક્ષિત બહાર આવે છે. અને તે શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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