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________________ ६३४ प्रश्रव्याकरणसूत्रे मणे' मुखमनाः संयमानुरक्तचित्तः, तथा-'अविग्गहमणे' अविग्रहमनाः-संक्लिष्टमनोभाववर्जितचित्तः, तथा- समाहियमणे' समाहितमनाः समाहित्तं रागद्वेषराहित्येन आत्मनि सम्यगुपनीतं मनो येन सः, उपशान्तचित्त इत्यर्थः, तथा'सद्धासंवेगनिज्जरमणे । श्चद्धासंवेगनिर्जरामना, तत्र-श्रद्धा-जिनमताभिरुचिः, संवेगः मोक्षाभिलाषः, निर्जरा कर्मक्षपणं च मनसि यस्य सः, तत्त्वार्थश्रद्धानान्मोक्षरुचिस्ततो निर्जरा, तद्वानित्यर्थः, तथा-' पवयणवच्छल्लभावियमणे' प्रवचनवात्सल्यभावितमनाः प्रवचनानुरागरञ्जितचित्तः, 'उठेऊण य ' उत्था य च 'पहढे' पहृष्टः-अतिशयममुदितः, अतएव-' तुढे ' तुष्टः 'जहाराइणियं' यथारानिक यथापर्यायं लघु पर्यायानुसारेण ' साहवे ' साधून-समानसमाचारिकान् मुनीन् 'भाषओ' भावतः-अन्तःकरणेन नतूपर्युपरितया 'निमंतइत्ता य' निमन्त्र्य: आहारग्रहणार्थ संप्रार्थ्य अनन्तरं ' गुरुजणेणं ' गुरुजनेन 'विइण्णे य' वितीर्णेच= के लाभ में भी विषाद से विहीन चित्त वाला, (सुहमणे ) सुखमनसंयम में अनुरक्त चित्त वाला, तथा ( अविग्गहमणे ) संक्लिष्ट मनोभाव से वर्जित हृदयवाला, और (समाहियमणे ) रागद्वेष से रहित होने के कारण उपशान्त मनवाला तथा (सद्धा संवेगनिज्जरमणे) श्रद्धातत्त्वार्थ-श्रद्धान, संवेग-मोक्ष में रुचि और निर्जराकर्मक्षपण इनमें मन रखनेवाला, (पवयणवच्छल्लभावियमणे) प्रवचनानुराग से जिसका चित्त अनुरंजित बना हुआ है ऐसा वह साधू (उढेऊण य) अपने स्थान से उठकर (पहढे) अतिशय प्रमुदित एवं (तुहि) संतुष्ट होता हुआ ( जहाराइणियं साहवे ) यथापर्याय-बडे छोटे के क्रमानुसार साधुओं से भावपूर्वक (निमंतइत्ता य) आहार ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करे। इसके बाद (गुरुजणेणं विइण्णे य ) गुरुजनों बड़ो का ५५ विषा: २डित वित्तवात, “ सुहमणे" सुगमन-सयममा मनु२४त चित्त पा, तथा “ अविग्गहमाणे ” समिट भनामा २डित ४४याणा, मने " समाहियमणे" रागद्वेष २डित जवान सीधे शान्त भना, तथा "सद्धा संवेगनिज्जरमणे" श्रद्धा-तत्त्वार्थमा श्रद्धा, सरा-भाक्षनी शन्थि मने निश भक्षपशुमा मन रामनार "पवयणवच्छल्लभावियमणे" अवयनानुरागथीनु वित्त मनु२ ति मन्यु छ मेवा ते साधु 'ऊठेऊणय' पोताना स्थानेथी हीने " पह?" अतिशय मान हित मने “ तुद्धि” सतुष्ट थने “जहाराइणियं. साहवे , यथा पर्याय-नाना भाटाना भ प्रमाणे साधुसाने भावपूर्व “ निमंतइत्ताय” माडा२ १ ३२वाने मोटे विनति ४२ त्या२ मा “गुरुजणेणं विइण्णेय" शुरुन। 43 अपाये २मा.२ " तमे मान ।” मेवी माज्ञा શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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