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________________ ६२४ 6 " पापकेन = अशुभेन ' मणसा' मनसा ' पावगं ' पापकम् = अशुभं भवति, अहम्मियं ' अधार्मिकं दुर्गतिजनकस्यात्, दारुणं विषमम्, तीव्र दुःखजनकत्वात्, 'निसंसं' नृशंसम् आत्महितघातकत्वात् तथा-' वहबंधपरिकिलेस बहुलं ' वधबन्धपरिक्लेश बहुलम्, तत्र - वधो- मारणम्, बन्धः - निगडादिवन्धः, तज्जनितः परिक्लेश: = परितापस्तेन बहुलं व्याप्तं संभृतम्, प्रतिसमयमसहा संतापजनकत्वात्, तथा ' मरणभयपरिकिलेस सं किलिडं ' मरणभयपरिक्लेशसं क्लिष्टम् - मरणं प्राणवियोगस्तस्य यद् भयं तज्जनितो यः परिक्लेश :- परमसन्तापस्तेन संक्लिष्टं= संव्याप्तम्, नरकनिगोदाद्यनन्तदुःखजनकत्वात्, एतादृश-विशेषणविशिष्टं - करते हैं-- ' बीयं च' इत्यादि० । टीकार्थ - ( बीयं ) दूसरी मनोगुसि नामकी भावना इस प्रकार से है ( पावण मणेण ) अशुभ मन से अशुभ होता है अर्थात्-अशुभमन से जीव पाप का उपार्जन करता है। यह पाप ( अहम्मियं ) दुर्गति का जनक होने से अधर्म रूप है । ( दारुणं ) तीव्र दुःखों का उत्पदक होने से दारुण-विषम अर्थात् कष्टकारक होता है । तथा (निसंस) इसमें आत्मा के हितका घात होता है इसलिये नृशंस है । ( वहबंधपरिकिलेसवहुलं ) वध, बंधन और इनसे उत्पन्न परिक्लेश- परितापसे यह सदा भरा रहता है । अर्थात् प्रति समय यह असह्य संताप का जनक होता है । ( मरणभयपरिकिलेससंकिलिडं ) मरण के भय से जनित परम संताप से यह व्याप्त रहा करता है । अर्थात्- पाप से जीव नरक निगोद आदि के अनंत दुःखों कों भोगा करता है । इसलिये यह व्याकरणसूत्रे ष्टी४२ उरे छे - " बीयं च " इत्यादि टीडार्थ – “बीय" मी मनाशुप्ति नामनी भावना या अहारनी छे - "पावएण मणेण " અશુભ મનથી અશુભ થાય છે-એટલુ` કે અશુભ મનથી જીવ પાપનું उपार्जन उरे छे मा पाय " अहम्मियं " हुर्गतिनुं न होवाथी अधर्म३य छे. “ दारुणं " तीव्र दु:मोनुं उत्पाद होवाथी हारुणु-विषम भेटले ! अष्टाરક હાય છે. તથા 'निसंसं " तेमां आत्माना हितनो छात थाय छे तेथी ते नृशंस छे. " वहब धपरिकिले सबहुलं " वध, बंधन मने तेमना आरो ७६. ભવેલ પરિકલેશ-પરિતાપથી તે સદા ભરેલ રહે છે, એટલે કે પ્રતિસમય તે અસહ્ય સતાપ પેદા કરનાર હાય છે. " मरणभयपरिकिलेससंकि लिहूँ ” મરણના ભયથી ઉત્પન્ન થયેલ પરમ સંતાપથી તે વ્યાસ રહ્યા કરે છે. એટલે કે પાપથી જીવ નરક નિાદ આદિના અનત દુઃખને ભગવ્યા કરે છે. તે 6. શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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