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________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे दुरुत्तराणि कापुरुषैः- कातरैः दुःखेन उत्तीर्यन्ते यानि तानि तथोक्तानि= कापुरुषैः प्रतिप-तुमशक्यानीत्यर्थः, तथा- 'सप्पुरिसनिसेवियाई ' सत्पुरुषैनिषेवितानि-आश्रितानि, तया-'निव्वाणगमणमग्गसग्धपणायगाई' निर्वाणगमनमार्गस्वर्गप्रणायकानि-निर्वाण-मोक्षस्तस्य गमने मार्ग इव मार्गा यानि तानि निर्वाणगमनमार्गाणि, तथा-स्वर्गे प्रकर्षण नयन्ति जीवान् यानि तानि स्वर्गप्र. णायकानि, उभयोः कर्मधारयस्तानि तथोक्तानि, पञ्चसंवरद्वाराणि 'भगवया' भगवता महावीरेण 'उ' तु-निश्चयेन ' कहियाणि' कथितानि-प्रोक्तानि, अत इमान्यवश्यं श्रद्धेयानीति भावः ॥ मू०१ ॥ इति प्रथमसंवरचार प्रस्तावना । आराधना से विनष्ट हो जाते हैं तो यह बात भी निश्चित हो जाती है कि ये सैकड़ों सुखों के प्रवर्तक होते हैं। जब इनका इतना विशिष्ट प्रभाव है तो फिर क्या है हरएक प्राणी इनकी आराधना करने लगेगाइसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि ये संवरद्वार (कापुरिसदुरुत्तराई) का पुरुष दुरुत्तर हैं-जो कायरपुरुष हैं-उनके द्वारा तो धारण करने के लिये अशक्य हैं । परन्तु ( सप्पुरिसनिसेवियाई ) सत्पुरुषों से ये सेवित-आचरित होते हैं, अर्थात् जो सत्पुरुष हैं-अन्तरात्मा जीव है-वे ही उन्हें धारण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय ये संवरद्वार (निव्वाणगमणमग्ग-सग्गप्पयाणगाई) मोक्ष के गमन में मार्गरूप है, अगर जीव में इतनी योग्यता नहीं हों तो स्वर्ग में प्रयाण कराने वाला जरूर होता है । इस प्रकार के (ये पंच संवरदाराई कहियाणि) पांच मंवर द्वार भगवान महावीर ने कहे हैं। इसलिये प्रत्येक भव्य जीव को इन्हें अपनी श्रद्धा का विषय अवश्य बनाना चाहिये। ॥सू०१॥ દુઃખ નષ્ટ થઈ જાય છે તે એ વાત પણ નક્કી થઈ જાય છે કે તે સેંકડે સુખના પ્રવર્તક થાય છે. જ્યારે તેમને આટલે બધે વધારે પ્રભાવ છે તે દરેક પ્રાણી તેની આરાધના કરવા માંડશે. તેથી સૂત્રકાર બતાવે છે તે તે સંવ२२ " का पुरिसदुरुत्तराई" आपुरुषहरुत्तर छ-? य२ ५३षो छ-मडि. सात्मा ७१ छ, तभना द्वारा त धा२१ २वाने माटे मशय छे. ५५ " सप्पुरिसनिसेवियाई" ५१ सत्५३॥ तेनु सेवन-माय२५ ४२राय छे. १५ ४! ते स१२६१२ “ निव्वाणगमणमग्ग सगप्पयाणगाई" भाक्षामनना भागરૂપ છે, જે જીવમાં એટલી યોગ્યતા હોય તે તે તેને માટે અવશ્ય સ્વર્ગ प्राति १२वना निव: छे, 24 प्रा२ना ते “ पंच संवरदाराई कहियाणि " पांच्य સંવરદ્વાર ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે. તે દરેક ભવ્યજીવે તેમને અવશ્ય પિતાની શ્રદ્ધાને વિષય બનાવવો જોઈએ. સૂ. ૧છે શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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