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________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १ पञ्चसंवरद्वारलक्षणनिरूपणम् ५५७ दारकाणिकर्मज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारक, तदेव जीवस्य गुण्ठनेन मालिन्यापादकत्वेन रजा-बूलिः, तद् विदारयन्ति=निवारयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तथा-मवसयविणासगाई' भवशतविनाशकानि = भवशतानि = जन्मशतानि विनाशयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, भवपरम्पराविच्छेदकानीत्यर्थः, अत एवं 'दुहसयविमोयगाई' दुःखशतविमोचकानि दुःखशतानि विमोचयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तथा – 'सुहसयपवत्तगाई' सुखशतवर्तकानि-मुखशतानि मवर्तयन्ति यानि ताति तथोक्तानि, तथा-' कापुरिसदुरुत्तराई' कापुरुष चुके हैं उन सबने दीया है। (कम्मरयविदारगाई) ये संवरद्वार कर्मरज के विदारक हैं-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार की कर्मरूप धूलि को ये उडानेनष्ट करने वाले हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मो को धूलि की उपमा इसलिये दी है कि धूलि जिस प्रकार मलिनता आदि करती है उसी प्रकार ये कर्म भी जीव में व्यवहार नय की अपेक्षा से मलिनता करते हैं, अर्थात् ज्ञानादिक गुणों का आवरण आदि कर देने से जीव में अज्ञान आदि विभाव भावों के वर्धक होते हैं। (भवसयविणासगाई) ये संवरद्वार भवशतविनाशक हैं-अर्थात्-इनकी आराधना करने मे आराधक, जीवों के जो इनकी आराधना के विना सैकडों भव-जन्म-होने वाले थे वे सब नष्ट हो जाते हैं । ( दुक्खसयविमोयगाई ) भवपरंपरा इनके प्रभाव से विच्छिन्न हो जाती है, इसीलिये इन्हें दुःखशत विमोचक कहा है । (मुह सयपवत्तगाई ) जब सैकड़ों दुःख इनकी “सव्व जिणसासणग्गई" मा सुधीमा टस बिनेश्वरे। 25 गया ते सांय ते सववाशन। ५० माये। छ “ कम्मरयविदारगाई" ते સંવરદ્વાર કર્મ રજને નાશ કરનાર છે-જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મરૂપી રજનો નાશ કરે છે. જ્ઞાનવરણ આદિ કર્મોને ધૂળ-રજની ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે ધૂળ જેમ મલિનતા આદિ કરે છે તેમ એ કર્મો પણ જીવમાં વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ મલિનતા કરે છે, એટલે કે જ્ઞાનાદિક આદિ ગુણોનું આવરણ કરી નાખવાથી જીવમાં અજ્ઞાન આદિ ઉલટા ભાવોનાં વર્ધક થાય છે. " भवसयविणासगाई" ते १२६१२ मत विनाश छ-मेटसे तेभनी આરાધના કરવાથી આરાધક જીવોના તેમની આરાધના કર્યા વિના જે સેંકડો म थवाना ता ते या नष्ट थ नय छ “ दुक्खसयविमोयगाइ" तेमना પ્રભાવથી ભવોની પરંપરા છેદાઈ જાય છે, તે કારણે તેમને દુઃખ શત વિમેया शा०या छ. “ सुहसयपवत्तगाई" ने तमती माराधनाथी से। શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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