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________________ २०३ सुदर्शिनी टीका अ०२ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् तथा दैववादिनः" प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं नहितत्परेषाम् ॥" तथा ' नत्थि' नास्ति 'तत्थ' तत्र मर्त्यलोके 'किंचि' किञ्चित् ‘कयक' कृतकं कर्मनिष्पन्नं 'तत्तं' तत्त्वं वस्तु । तथा 'लक्खणविहाणं ' लक्षणविधानां =पदार्थस्वरूपपकाराणां नियतिः=भाग्यमेव 'कारिया' कारिका-कर्की, तथा यन्न कार्यकारणभाव का बिच्छेद प्राप्त होता है। ____ अब दैववादियों का स्वरूप कहते हैं- दवियप्पभावओवावि भवइ' इत्यादि । दैववादियों कि ऐसी मान्यता है "प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् ॥१॥" जो कुछ प्राप्त होने योग्य वस्तु है वह हमें भाग्य की कृपा से ही प्राप्त होती है। यह भाग्य अलंघनीय है। अतः ऐसा समझकर कि जो हमारी है वह दूसरों की कभी नहीं हो सकती है कभी भी किसी प्राणी को शोक फिकर और आश्चर्य आदि नहीं करना चाहिये ॥१॥ ___अतः हे भाइयो ! तुम एक मात्र दैव-भाग्य पर ही भरोसा रखो। (नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं ) लोकमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कृतक हो परुषार्थ रूप कर्म से प्राप्त की जा सके-ऐसी हो । इसी प्रकार (लक्खणविहाणं ) पदार्थों का जितना भी कुछ अपना रूप है तथा उनके जितने भी प्रकार-भेद हैं इन सबकी (कारिया ) कारिका करने वे हैववाहीमार्नु २१३५ ४ छ-" दवियप्पभावओवावि भवइ" त्यादि. દૈવવાદીઓની માન્યતા છે કે " प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीयं नहि तत् परेषाम् ॥१॥ પ્રાપ્ત થવા લાયક જે કઈ વસ્તુ હોય છે તે આપણને ભાગ્યની કૃપાથી જ મળે છે. તે ભાગ્ય અલંઘનીય-અફર છે. જે અમારી ચીજ છે તે બીજાની કદી પણ થઈ શકતી નથી, એવું સમજીને કદીપણ કઈ પ્રાણીએ શેક, ચિન્તા આશ્ચર્ય આદિ કરવા જોઈએ નહીં ? તે હે ભાઈઓ! તમે એક માત્ર ભાગ્ય ઉપર જ વિશ્વાસ રાખે "नत्थि तस्स किंचि कयकं तत्तं" गतमा मेवी वस्तु नथी २ कृत डाय-पुरुषार्थ थी पास ४२१ शय तेवी डाय. स. ८ ते " लक्खणविहाणं " पहाkि 2 3 पोतार्नु ३५ छ तथा तेमना रेटा २-ले छे, ते अधानी “कारिया " 10४१-४२नारी "नियई ” मा नियति-माय શ્રી પ્રશ્ન વ્યાકરણ સૂત્ર
SR No.006338
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1010
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_prashnavyakaran
File Size57 MB
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