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________________ अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ९ माकन्दिदारकचरितनिरूपणम् ६३१ नो आद्रियेते नो परिजानीतः 'नो अवयक्खंति ' नो पश्यतः, 'अणाढायमाणा' अनाद्रियमानौ-तमर्थं प्रति-आदरं न कुर्वाणी ' अपरियमाणा' अपरिजानानौं तमर्थमस्वीकुर्वाणौ ' अणवयक्खमाणा' तत्संमुखमप्यपश्यन्तौ शैलकेन यक्षेण साई लवणसमुद्रं मध्यमध्येन 'वीइवयंति' व्यतित्रजतः सुखपूर्वकं गच्छतः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तो माकन्दिकदारको यदा नो शक्नोति बहुभिः 'पडिलोमेहिय' प्रतिलोमैश्च प्रतिकूलैरुपसगैंचालयितुं वा-क्षोभयितु वा 'विपरिणामित्तए वा' विपरिणामयितु =मनोवृत्ति परावर्तयितुं 'लोमित्तए वा ' लोभयितुं लुब्धौ कत्तुं वा अतत्था अणुविग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए एयम नो आदति, णो परिणो अवयवति अणाढायमाणा अपरि० अणवयक्खमाणा सेल एण जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मझेणं वीइवयति) इस प्रकार वे माकंदी-दारक रयणा देवी के मुख से इस बात को सुम कर और उसे हृदय में अबधृत कर भयभीत नही हुए त्रस्त नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए क्षुभित नही हुए, संभ्रान्त नहीं हुए घबड़ाये नहीं और न उन्हों ने रयणा देवी के इस अर्थ को आदर की दृष्टि से देखा न उसे स्वीकार किया, और न उस तरफ लक्ष्य ही दिया। इस तरह उस के वचनों का अनादर करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते हुए तथा उनकी ओर लक्ष्य नहीं देते हुए वे दोनों उस शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीच में चलते ही गये। (तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे णो संचाएंति, बहूहिं पडि लोमेहिं य उवसग्गेहिं य चालित्तए वा खोभित्तए वा विप. अभीया अतत्था अणुब्बिगा अक्खुभिया असंभंता रयणदीव देवयाए एयम नो आढ़ति णो परि० णो अश्यक्खंति अणाढायमाणा अपरि० अणवयक्खमाणा सेलए जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयंति) મામંદી દારએ રણું દેવીના મુખેથી આ પ્રમાણે સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ભય પામ્યા નહિ. ત્રસ્ત થયા નહિ, ઉદ્વિગ્ન થયા નહિ ક્ષભિત થયા નહીં સંભ્રાત થયા નહિ, ગભરાયા નહિ અને તેઓએ રયણદેવીના અર્થને ન તે સન્માનપૂર્વક જે અને ન તેને સ્વીકાર કર્યો. તે તરફ તેઓએ સહજ પણ લક્ષ્ય આપ્યું નહિ. લવણ સમુદ્રની વચ્ચો થઈને તેઓ બંને શૌલક યક્ષની સાથે પોતાને પંથ કાપતા જ ગયા. (तएणं सा श्यणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे णो संचाएंति, बहहिं पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोमित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोमित्तएवा શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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