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________________ ३५२ ज्ञाताधर्मकथागसूत्रे अपूर्वदृष्टमद्भुतं पिशाचरूपम् एजमानं नावं प्रत्ति समागच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वाअभीतः, भयरहितः, अत्रस्तः त्रासमप्राप्तः अचलितः, अप्राप्तक्षोभः असंभ्रातः, संभ्रान्तिरहितः अनाकुलः, अव्यग्रः अनुद्विग्नः, अप्रकम्पः अभिन्नमुखरागनयनवर्णः= अभिन्नौ-अविकृतौ मुखरागनयनवर्णी यस्य स तथा , तस्य भयाभावान्मुखरागोनयनवर्ण श्चान्यथा न अदीनविमानो जातइत्यर्थः मानसः अदीनविमना-नदीनं दैन्यप्राप्तं, नापि विमना=दुर्मनः नापि विकृतं मानसं यस्य स तथा तस्य मनोऽप्यन्यथा न जातमित्यर्थः, तथा भूतः सन् पोतवहनस्य नौकायानस्यैकदेशे-एकभागे वस्त्रान्तेन-वस्त्राञ्चलेन खलु भूमिम्-उपवेशनस्थानं प्रमार्जयति प्रमाj स्थानम्-उपवेशनार्ह स्थानं संशोध्य जीवादिरहितं कृत्वा तत्र तिष्ठति-उपविशति, स्थित्वा-उपविश्य करतलपरिगृहीतं शिर आवर्त दशनखं मस्तकेऽज्जालिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत्-नमोऽस्तु अद्भयो यावत् सिद्धिगतिनामधेयं अपूर्वदृष्ट-अद्भूत-पिशाच रूप को ( एज्ज मानं ) नाव की तरफ आता हुआ (पासइ) देखा-तो ( पासित्ता देखकर वह ( अभीए ) डरा नहीं ( अतत्थे ) त्रस्त नहीं हुआ (अचलिए ) धैर्य से चलायमान नहीं हुआ (असंभते ) घबराया नहीं ( अणाउले) आकूल व्याकुल नहीं बना ( अणु विग्गे ) उद्विग्न नहीं हुआ ( अभिन्न मुहरागणयणवन्ने ) उस के मुख का राग और नयनों का वर्ण विकृत नहीं बना ( अदीणविम णमाणसे ) उस का मन न दीन बना और न विकृत ही बना ( पोयव हणस्स एगदेसंसि वत्थं तेणं भूमिं पमज्जह) किन्तु नौका यान के एक तरफ वस्त्राञ्चल से भूमि को प्रमार्जित करने लगा- ( पमजित्ता) प्रमार्जित कर के फिर वह (ठाणं ठाइ ) बैठ ने के योग्य स्थान का संशोधन कर उसे जीवादि रहित कर वहां बैठ गया! (ठाइत्ता करयलओ " एज्जमानं" पोताना वा त२३ आषतुं “ पासइ"युत्यारे “पासित्ता" धनत " अभीए" लय पाभ्यो नाड, “ अतत्थे त्रस्त थये। नहीं, "अचलिए" धैय थी विद्यालित थय। नहि, " असंभंते " अमराय नहि, “अणाउले व्याण थयो नलि, ( अणुविग्गे) मन थय। ना, (अभिन्नमुहरागणयणवन्ने) तन। भनि। मन मांजाना १ मा ४२ये विकृत थयो न (अदीण विमणमोणसे) तेनुं मन ही मन्यु ना तभी पित थयु डि. (पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमि पमज्जइ) ते नाना मे त२३नी भूमिन वखना छेाथी प्रभावित ४२१। साभ्यो. (पम्मजित्ता) प्रभावित शन ते (ठाणंठाइ) मेसा याज्य स्थानतुं सशोधन ४शन. स्थानने १ पोरया २हित मनावीन त्यां सीगया. ( ठाइत्ता करयलओ एवं वयासी) શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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