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________________ अनगारधर्मामृतवषिणी टीका अ० ८ अङ्गराजचरिते अरहन्नकश्रावकवर्णनम् ३५३ स्थानं संपाप्तेभ्यः, यदि खल्वहम् एतस्मादुपसर्गाद् पिशाचकृतसंकटात् , निर्विघ्नो भवामि मुञ्चामि, तदा मे तथा तावत्पर्यन्तं प्रत्याख्यातव्यम् चतुर्विधभक्तप्रत्याख्यानं मयाऽनुष्ठेयमित्यर्थः, इति कृत्वा साकारभक्तं चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याति । ततस्तदनन्तरं खलु स पिशाचरूपधारी देवः, यत्रैवारहन्नकः अरहन्नक नामकः श्रमणोपासकः = श्रावकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्यारहन्नकम्-एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत-हंभो ! अरहन्नक ! हे अप्रार्थित प्रार्थित !-अप्रार्थितं एवं वयासी ) बैठ कर उस ने अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाई। और उसे मस्तक पर रख कर आवत करते हुए वह इस प्रकार कह ने लगा-(णमोत्थु गं अरहंताणं जाव संपत्ताणं) यावत् सिद्धगति को प्राप्त हुए अहंत प्रभुओं को नमस्कार हो (जइणं अहं एत्तो उवसग्गामो मुंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए) । ___ यदि मैं इस पिशाच कृत उपसर्ग से बच गया तो ही अशनादि ग्रहण करूँगा (अहंगं एत्तो उवसगाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे ) यदि मैं इस उपसर्ग से नहीं बचा तो मेरे तावत्पर्यन्त चतुर्विध आहार का त्याग है (त्ति कटु ) ऐसा विचार कर (सागारं भत्तं पच्चक्खाइ) उसने साकार चतुर्विध आहारका प्रत्याख्यान कर दिया। अर्थात् सागारी संथारा किया - (तएणं से पिसायरूवे जेणेव अर. हन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ ) इस के बाद वह पिशाच रूप धारी देव जहां वह श्रमणोपासक अरहन्नक बैठा था-वहां आया બેસીને તેણે પિતાના બંને હાથની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક ઉપર भूटीन ३२पता ते मा प्रमाणे ४ा दायो-" णमोत्थुण अरहताणं जाव सपत्ताणं" यावत्-सिद्धगतिन पामेला मत प्रमुख्याने भा। नम२४॥२ छे. (जइणं अहं एतो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए જે હું આ પિશાચના ઉપસર્ગોથી બચી જઈશ તેજ આહાર વગેરે अ५ ४३२२. “ अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाए यवे" ! साथी भारी २क्षा नाड थाय तो तावत्पयन्त यातना मानो हु त्या ४३ छु. “त्तिकट्ठ" माम पियारीने “ सागरं भत्तं पच्चक्खाइ" तेणे सा२ यतुवि माहानु प्रात्याच्यान यु. એટલે કે તેણે સાગારી સંથારે કર્યો (तएणं से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ) ત્યાર બાદ પિશાચ રૂપ ધારીદેવ જ્યાં શ્રમણોપાસક બેડાહતા ત્યાં આવ્યું. શ્રી જ્ઞાતાધર્મ કથાંગ સૂત્રઃ ૦૨
SR No.006333
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages846
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size47 MB
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