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________________ 3 प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२६ उ.११ सू०१ अथरमनारकादीना पापकर्मबन्धः ६६३ कश्चिदेकोऽचरमो नारकः पापं कर्म अबध्नात् बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको द्वाबाधौ भङ्गो यथा प्रथमोद्देशके कथितौ तथैव अचरमनारकस्य पापकर्मबन्धनेऽपि वक्तव्यौ, चरमनारकादारभ्य पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकं यावत्, अत्र यावत्पदेन अचरम भवनपति पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिद्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियपकरणपर्यन्तस्य अहणं भवति, सर्वत्रालापप्रकार: स्वयमेवोहनीय इति । अचरमोदेशके नैरयिका दारभ्य पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपर्यन्तेषु पदेषु पापं कर्माश्रित्य आषावेव द्वौ भङ्गको वक्तव्याविति निष्कर्ष इति । 'अचरिमे गं भंते ! मणुस्से' अचरमः खलु भदन्त । मनुष्यः 'पावं कम्मं किं बंधी पुच्छा' पापं कर्म किमबध्नात् बध्नानि भन्स्यति स्याधाकारक श्चतु भङ्गका प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइर बंधी बंधइ वंधिस्सइ' अस्त्येककोऽचरमो मनुष्यः पूर्वकाले पापं कर्म अबध्नात, वर्तमानकाले पापं कर्म बन्नाति, अनागतकाले ग्रहण हुआ है । इन सब में आलाप प्रकार अपने आप उभावित करना चाहिये, तात्पर्य इस कथन का केवल इतना ही है कि अचरम नैरयिक से लेकर अचरम पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक तक के पदों में इस उदेशक में आदिके दोही भंग वक्तव्य हैं । 'अचरिमे णं भंते ! मणुस्से.' 'हे भदन्त ! जो मनुष्य अचरम होता है वह क्या पापकर्म का बन्ध कर चुका होता है ? वर्तमान में वह पापकर्म का बन्ध करता है? और भविष्यत् में भी वह पापकर्म का क्या बन्ध करने वाला होता है ? इस रूप से यहां पर भी चार भगोवाला प्रश्न गौतमस्वामीने प्रभुश्री से पूछा है, उत्तर में प्रभुश्रीने कहा है-'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ 'हे गौतम! कोई एक अचरम मनुष्य ऐसा होता है जो पापम का बन्ध कर चुका होता है, वर्तमान में भी वह पापकर्म સંબંધમાં આલાપક સ્વયં સમજી લેવા. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે – અચરમ નૈરયિકથી લઈને અચરમ પંચેન્દ્રિયતિર્યંચનિક સુધીના પદોમાં આ शामा पहुये। मने मानने से मे सो पाना छे. 'अचरिमे गं भंते ! मणुस्से!' 3 भगवन् रे मनुष्य अयरम डाय छे, ते शु. ५५भनी म કરી ચુકેલ હોય છે? વર્તમાન કાળમાં તે પાપકર્મને બંધ કરે છે? અને ભવિષ્ય કાળમાં તે પાપ કમનો બંધ કરવાનો હોય છે? આ પ્રકારથી આ વિષયમાં પણ ચાર ભંગાત્મક પ્રશ્ન ગીતમસ્વામીએ પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतम स्वामीन ४ छ -'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी, बंधा, वधिस्सई' गौतम! अन्यरभ मनुष्य मेवाडाय छे मतકાળમાં પાપકર્મને બંધ કલી ચુકેલ છે, વર્તમાન કાળમાં, પણ તે પાપ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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