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________________ ૪૦ मगवती सूत्रे प्राणातिपाताद्य श्रवद्वारजम्यानर्थानाम् अनुप्रेक्षा- अनुचिन्तनमित्यपायानुप्रेक्षा । अत्र खलु यत्तपोऽधिकारे प्रशस्ता प्रशस्तध्यानवर्णनं कृतं तदपशस्तस्य ध्यानस्य वर्जने प्रशस्तस्य ध्यानस्यासेवने तपो भवतीति कृत्वेति ज्ञातव्यमिति । 'सेत्तं झाणे' तदेतत् संक्षेपविस्ताराभ्यां ध्यानं निरूपितमिति । ध्यानं निरूप्य व्युत्सर्गं निरूपयितुमाह- 'से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं विसग्गे' अथ कः स व्युत्सर्गः व्युत्सर्गस्य किं लक्षणं कियांश्च भेदाः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'विसग्गे दुबिहे पन्नत्ते' व्युत्सर्गः द्विविधः प्रज्ञप्तः । द्वैविध्यं दर्शयन्नाह - 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तथथा - 'दव्वविसग्गे भावविसग्गेय' द्रव्यव्युत्सर्गश्च भावव्युत्सर्गश्चेति 'सेतं ' अथ कः स द्रव्यन्युत्सर्गः द्रव्यव्युत्सर्गस्य किं स्वरूपं कियन्तश्च भेदाः ? इति प्रश्नः, उत्तरमाह - ' व्यवसग्गे चउविहे पन्नते' द्रव्य अनर्थों का अनुचिन्तन । यहां तप के अधिकार में जो प्रशस्त अप्रशस्त ध्यानों का वर्णन किया गया है उसका कारण ऐसा है कि अप शस्त ध्यान के वर्जन में और प्रशस्त ध्यान के उपादान में तप होता है । 'से तंझाणे' इस प्रकार संक्षेप और विस्तार से ध्यान का प्ररूपण किया । ध्यान के निरूपण के बाद अब व्युत्सर्ग तप का निरूपण सूत्रकार करते हैं- इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'से किं तं विउसग्गे' हे भदन्त ! व्युत्सर्ग तप का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'विसग्गे दुबिहे पण्णत्ते' हे गौतम! व्युत्सर्ग तप दो प्रकार का होता है 'तं जहा' जैसे- 'दव्वविउसग्गे य, भावविउसग्गे ' द्रव्यन्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग 'से किं तं दविसग्गे' हे વાળા અનથો નુ' ચિંત્વન કરવું, અદ્ગિયાં તપના અધિકારમાં પ્રશસ્ત અપ્રશસ્ત યાનાનું વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે, તેનુ કારણ એ છે કે અપ્રશસ્ત ધ્યાનના વનમાં અને પ્રશસ્ત ધ્યાનના ઉપાદાન-પ્રાપ્તિમાં તપ હાય છે. 'से त्त' झाणे' या प्रमाणे संक्षेप भने विस्तारथी ध्याननु नि३पायु रेस छे, ધ્યાનના નિરૂપણુ પછી હવે ‘વ્યુત્સગ’ તપનું નિરૂપણ સૂત્રકાર કરે છે, भाभां श्रीगौतमस्वामी अनुश्रीने मे पूछयु छे है- 'से किं तं विउम्रग्गे ' હે ભગવન્ યુત્સગ તપનું શું લક્ષણ છે? અને એ તપ કેટલા પ્રકારનું છે ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री हे छे है - 'विउसग्गे दुविद्दे पण्णत्ते' हे गौतम! व्युत्स तप से प्रहार' उडेल छे. 'त' जहा' ते या प्रमाणे छे. - 'दव्वविग्गे भावविसग्गे य' द्रव्यव्युत्सर्ग भने लाव व्युत्सर्ग 'से किं त दव्य विसग्गे' हे लगवन् द्रव्य व्युत्सर्गनुं शुं २१३५ छे ? गाने तेनाईटला શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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