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________________ READHAAROHALPARAN प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०११ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् ४८७ सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च संमोहस्य मूढताया अभावोऽसंमोह इति । 'विवेगे' विवेका देहादात्मनः आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनबुद्धया पृथक्करणमेव विवेक इति । 'विउसग्गे' व्युत्सों निःसंगतया देहोपधिममत्वत्यागः । 'सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पन्नत्ताओं' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चतस्रोऽनुपेक्षाः-पर्यालोचनानि प्रज्ञप्ताः । 'तं जहा' तद्यथा-'अणंतवत्तियाणुप्पेहा' अनन्ततितानुप्रेक्षा भवसंतानस्य अनन्तवृत्तिताया अनुचिन्तनम् 'अजन्तोऽयं संपारः' इत्याकारकानु. चिन्तनमित्यर्थः । 'विष्परिणामाणुप्पेहा' विपरिणामानुप्रेक्षा वस्तूनां प्रतिक्षणं विविधपरिणामानुगमनचिन्तनमिति । 'अमुभाणुप्पेहा' अशुभानुप्रेक्षा चतुर्गतिकसंसारस्याशुभानुचिन्तनमित्यर्थः । 'अबायाणुप्पेहा' अपायानुप्रेक्षा अपायानां दिकों द्वारा कृत माया से जनित भ्रान्ति का और सूक्ष्मपदार्थविषयक मूढता का अभाव 'विवेगे' देह से आत्मा का अथवा आत्मा से सर्वसंयोगों का विवेचन घुद्धि द्वारा पृथक्करण 'विउसग्गे' निःसंग हो जाने के कारण देह से एवं उपधि से ममत्व का त्याग । इस प्रकार से ये चार आलम्बन शुक्लध्यान के हैं। 'सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणु. प्पेहाओ' शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाए हैं-'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'अणंतवत्तियाणुप्पेहा' भवसंतान को अनन्तवृत्तिता का बारम्बार चिन्तन-यह संसार अनन्त है ऐसा विचार 'विप्परिणामाणुप्पेहा' प्रत्येकक्षण में वस्तुओं में अनेक प्रकार के होने वाले परिणमन का चिन्तन 'असुभाणुप्पेहा' चतुर्गतिक संसार का अशुभ रूप से अनु चिन्त जन्य 'अवायाणुप्पेहा' प्राणातिपात आदि आश्रवद्वारों से जन्य અર્થાત્ દેવાદિક દ્વારા કરેલી માયાથી થવાવાળી ભ્રાંતિ અને સૂમ પદાર્થ संधी भरताना अमाप 'विवेगे' हेथी मात्माना अथवा मामाथी स संयोगाना विवेयन मुद्धि द्वारा पृथ४२५ ४२७ 'विउस्सग्गे' नि:स' थ४ જવાથી દેહથી અને ઉપાધીથી મમતવપણાનો ત્યાગ. આ રીતે આ ચાર શુક્લ ધ્યાનના આલમ્બન કહેલ છે, _ 'सुक्करस णं चत्तारि अणुप्पेहाओ' शुध्याननी या२ अनुप्रेक्षायो छे. 'त जहा' मा प्रभारी छे. 'अणंतवत्तियाणुप्पेहा' तापनी मनतवृत्ति પણાનું વારંવાર ચિંતવન કરવું. અર્થાત્ આ સંસાર અનંત છે, એ વિચાર ४२३।. 'विप्परिमाणाणुप्पेहा' ६२४ क्षमी तुममा मने ॥२ना थापा परिणमननु यिन्तन 'असुभावाणुह यति ससानु अशुभपाथी अनुथितन ४२'. 'अवायाणुप्पेहा' प्रायातिपात विगैरे मापद्वारथी था શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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