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________________ - मगचतीसरे क्रिया कायिका शैलेशीकरणनिरुद्धयोगत्वेन यस्मिन् वत् समुच्छिन्नक्रियम् तच्चअप्रतिपाति अनुपरतस्वभावम् एतादृशं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति चतुर्थ शुक्लध्यान. मिति 'सुक्कास णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि लक्षणानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' 'खंती' क्षान्तिः क्षमेत्यर्थः 'मुत्ती' मुक्तिः निलोभता 'अजवे' आर्जवं सरल तेत्यर्थः 'मद्दवे' मार्दवम् मानत्याग इत्यर्थः 'मुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलम्बणा पानत्ता' शुक्लस्य खलु ध्यानस्य चत्वारि आलम्बनानि प्रज्ञतानि, 'तं जहा' तद्यथा-'अवहे' अव्यथम् देवाधुपसर्गजनितं मयं चलनं चा व्यथा तदभावोऽव्यथम् 'असंमोहे' असंमोहः देवादिकृतमायाजनितस्य अप्रतिपाति है-इसका तात्पर्य ऐसा है कि यहां पर काययोग का सर्वथा निरोध हो जाने से कायिकी क्रिया का सर्वथा उच्छेद हो जाता है, और शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है । अतः इस स्थिति का जो ध्यान है वह समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान है। क्यों कि यह ध्यान भी अप्रतिपाति होता है। 'सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' इस शुक्लध्यान के भी चार लक्षण कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-'खंती, मुत्ती, अज्जवे, मह' क्षान्ति-क्षमा, मुक्तिनिलों भता, आर्जव-सरलता, और मार्दव मृदुता-मानत्याग 'सुक्करसणं झाणस्स चत्तारि आलंयणा पण्णत्ता' शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं-'अवहे १' अव्यथा देवादिकों से उपसर्ग से जन्य भय का होना अथवा चलायमान होना इसका नाम व्यथा है। इसका जो अभाव है वह अन्यथा है । 'असंमोहे २१ भ्रान्ति का अभाव-देवाછે. તેનું તાત્પર્ય એવું છે કે અહિયાં કાગને સર્વથા નિધિ થઈ જવાથી કાયિકી ક્રિયાને સર્વથા ઉચછેદ થઈ જાય છે. અને શિલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. જેથી આ સ્થિતિનું ધ્યાન છે, તે સમુછિન્ન ક્રિયા અપ્રતિपाति शुध्यान छे म मा ध्यान ५५ मप्रतिपाति य छ 'सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता' मा शुसध्यानना ५ यार । ४सा छे. 'तौं जहा' ते मा प्रभाये छ.-'खंती मुत्ती, अज्जवे, महवे' शान्ति क्षमा, भुमित, निale मा ५-२सामने भाई- भूमिमा 'सुकस्स णं झाणाच चतारि आलंबणा पण्णत्ता' शुध्यानना यार मालन yा छे. 'अबहे' १ भव्यथा-मेट-पाथी ५सया वाणा ભયનું હોવું અથવા ઉપસર્ગથી ચલાયમાન થવું, તેનું નામ વ્યથા છે. त या मानसोय ते १०यथा छ. १ 'असंमोहे' तिन सा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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