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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०९ प्रायश्चित्तप्रकारनिरूपणम् ४३७ पूर्वार्द्ध त्रिंशत्तमं सूत्रं द्रष्टव्यम् 'जहा उवाइए' इत्यनेन इदं सूचितं भवति, 'दया. मिग्गहचरए, खेताभिग्गहचरए, कालाभिग्गहचरए, भावाभिग्गहचरए' इत्यादि, द्रव्याभिग्रहचरका, क्षेत्राभिग्रहचरकः कालाभिग्रहचरकः, भावाभिग्रहचरक इत्यादि, । 'सुद्धेसणिए' शुद्धषणा शङ्कितादि दोषपरिहाराद् एतादृश शुढेषणावान् शुदैषणिकः 'संखादत्तिए' संख्यादत्तिका-एकादिदत्त्या भिक्षाकरणम् । 'से तं भिक्खायरिया' सैषा भिक्षाचर्येति । 'से किं तं रसपरिच्चाए' अथ कोऽसौ रसपरियह वर्णन देखलेना चाहिये । आहारादिका पात्र में जो एक बार प्रक्षेप है उसका नाम दत्ति है, अभिग्रह में दत्ति की संख्या का नियम होता है 'जहा उववाइए' इस पद से सूत्रकार ने यह सूचित किया है। 'दव्याभिग्गहचरए, खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए' भावाभिग्गहचरए' इत्यादि जो शुद्ध एषणाचाला होता है वह शुद्धषणिक है। एषणा की शुद्धि शङ्कित आदि दोषों के परिहार से होती है। 'संखादत्तिए' एक आदि दत्ति से भिक्षा करना इसका नाम संख्या. दत्ति है। इस संख्यादत्ति वाला जो होता है वह संख्यादत्तिक है। 'सेत्तं 'भिक्खायरिया' इस प्रकार से यह भिक्षाचर्या के सम्बन्ध में कथन है । तात्पर्य कहने का यही है कि द्रव्याभिग्रह घर भिक्षा में अमुक चीजों का ही ग्रहण करने का नियम होता है। क्षेत्राभिग्रहचर अमुक क्षेत्र के अभिग्रहपूर्वक भिक्षा करना होता है । इत्यादि सब वर्णन इसका औषपातिक सूत्र में शुद्ध निर्दोष भिक्षा करना, दत्ति की संख्या करना इस प्रकरण तक किया गया है। આહાર વિગેરેને પાત્રમાં એકવાર નાખવામાં આવે છે, તેને દક્તિ કહેવાય छ, मालमत्तनी सध्यानी नियम हाय छे. 'जहा उववाइए' मा ५६था सूत्रधारे सूचित छ -'खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरए भावाभिग्गहचरए' त्याहि मे। शुद्ध मेषावाणा डाय छ, तमाशुध्धेष उपाय छे. मेष। विगेरेनी शुद्धि त विगैरे होषोना परिहारथी थाय छ 'संस्खादत्तिए' એક વિગેરે દત્તિથી ભિક્ષા કરવી તેનું નામ સંખાદત્તિ છે. આ સંખ્યાદત્તિपाडाय छ, त सध्याति उपाय छे. 'से त भिक्खायरिया' । રીતે આ ભિક્ષાચર્યાના સંબંધમાં કથન કરેલ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કેન્દ્ર વ્યાભિચહચર ભિક્ષામાં અમુક ચીજોને જ ગ્રહણ કરવાને નિયમ હોય છે. અમુક ક્ષેત્રના અભિગ્રહપૂર્વક ભિક્ષા કરવાનું હોય છે, વિગેરે સઘળું વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રમાં “શુદ્ધ નિર્દોષ ભિક્ષા કરવી દત્તિની સંખ્યા કરવી આ મકરણ સુધી કહેલ છે. તે સઘળું કથન અહિયાં પણ તે પ્રમાણે જ સમજી લેવું. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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