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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरुपणम् ve पूर्वमष्ट्वा पादे त्यक्ते (प्रसारिते) यत्पुनः पश्येत् । न च पादं निवर्त्तयितुं शक्नोति एतत्सहसा कारणम् । इति छाया । पूर्वगुर्वादिकमपश्यन् पादमसारणं कृतम् अथ च पुनः पश्यति गुर्वादिकम् न च पादौ प्रसारितौ विनिवर्त्तयितुं शक्नोति एतत्सहसाकरणम् इत्यर्थः । ' मयप्पओसायत्ति' भयात हिंसादि भयेन प्रतिसेवना भवति, तथा प्रद्वेषाञ्च पतिसेवना भवति, द्वेषच कोपादिः । 'बीमंसत्ति' विमशत् शिक्षकादिपरीक्षणात् जायमाना प्रतिसेवना, एवं कारणभेदेन दशप्रकारिका प्रतिसेवना भवति इति । 'दस आलोयणदोसा पन्नचा' दश आलोचना दोषाः प्रज्ञप्ता', 'तं जहा ' तद्यथा - 'आकंपइत्ते ति' आकम्प्याभिधः प्रथमो दोषः १ | 'अणुमाणइते चि' अनुमाय- 'अनुमानं 'पुचि अपासिणं' इत्यादि । तात्पर्य इसका ऐसा है कि पहिले गुव दिक को नहीं देखकर जैसा किसी शिष्य ने पैर पसार दिये हों और बाद में उसने गुरु को देखलिया हो तो ऐसी हालत में भी जो वह पसारे हुए पैरों को नहीं सकोड़ सकता है तो यह सहसाकार है । क्योंकि ऐसी जो शिष्य के द्वारा क्रिया हुई है वह आकस्मिक हुई है । 'भयप्पओ सायत्ति' सिंह आदि के होने के भय से जो प्रतिसेवना होती है, और क्रोधादि के भय से जो प्रतिसेवना होती है वह प्रद्वेष प्रतिसेवना है ९ । वीमंसत्ति' विमर्श से शिष्य आदि की परीक्षा करने से जो प्रतिसेवना होती है वह त्रिमर्श प्रतिसेवना है १० इस प्रकार से यह कारण के भेद से १० प्रकार की प्रतिसेवना होती है । 'दस आलोयणा दोसा पण्णत्ता' दश अलोचनादोष कहे गये हैं जो इस प्रकार से हैं - 'आकंपइत्ता, अणुमाणइत्ता' इत्यादि प्रसन्न हुए गुरु थोडा प्रतिसेवना छे उधुं पशु छे - 'पुव्वि अपासिउणं' इत्याहि उडेवानुं तात्पर्य એ છે કે-પહેલા ગુરૂ વિગેરેને ન દેખવાથી કાઈ શિષ્યે પગ પસાર્યાં હોય અને તે પછી પાતાના ગુરૂને જોઈ લીધા હાય તે। એ પરિસ્થિતિમાં પણ તે પસારેલા પગાને સકેચી શકતા નથી, તે સહુસાકાર કહેવાય છે, કેમકે शिष्य द्वारा या ने दिया यह छे, ते अस्मात थ छे. ७ 'भयप्पओनायत्ति' હિંસા વિગેરે થવાના ભયથી જે પ્રતિસેવના થાય છે તે તથા ક્રાધ વિગેરેના लयथी ने अतिसेवना थाय छे ते अद्वेष प्रतिसेवना छे. ८ 'विमंस्रचि' विमर्श थी શિષ્ય વિગેરની પરીક્ષા કરવાથી જે પ્રતિસેવના થાય છે. તે વિષ પ્રતિસેવના કહેવાય છે. ૧૦ આ રીતે કારણના ભેદથી દસ પ્રકારની પ્રતિસેવના થાય છે. 'दस आलोयणा दोस्रा पन्नता' इस अारना आसोयना होषो उह्या छे, ने भा अभाये छे.- आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता' इत्यादि प्रसन्न थयेला गु३ थोडुं प्रायश्चित्त શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬ -
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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