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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०८ प्रतिसेवनायाः निरूपणम् ४०७ 'तं जहा' तद्यथा-'दप्प' दर्षे 'दप्प' इत्यादौ सर्वत्र सप्तमी विभक्ति तिच्या तेन द विद्यमाने सति प्रतिसेवना भवति दर्पश्चाभिमानादि, तथा च अभिमानास्मकद सति या संयमविराधना सा दर्पप्रतिसेवनेति १ । 'पमाद' तथा प्रमादेसति-ममादश्च-मद्यविषयकषायनिद्राविकथा रूपः २। 'गाभोगे' अनाभोगे, सति अनाभोगच अज्ञानादिः तस्मिन् सति प्रतिसेवनेति तृतीया ३ । 'आउरे' दसविहा पडिसेवणा पन्नत्ता' हे गौतम ! पतिसेवना १० प्रकार की कही गई है। प्रतिकूल सेवना का नाम प्रतिसेवना है। प्रतिसेवना का दूसरा नाम संयमविराधना है। यह संयमविराधनारूप प्रतिसेवना संयम के दोषरूप होती है । अत: संयम के दोष कितने होते हैं ? ऐसा यह प्रश्न का वाच्यार्थ है। और संयम के दोष १० होते हैं। ऐसा यह उत्तर है। संयम के वे १० दोष इस प्रकार से है-'दपपमाद अणाभोगे आउरे आवईय, संकिन्ने सहसक्कारे भरोसा य वीमंसा' यहां दर्प इत्यादि पदों में ससमी विभक्ति हुई है ऐसा जानना चाहिये। तथा च-दर्प के होने पर प्रतिसेवना होती है । दर्प नाम अभिमान आदि का है अभिमानात्मक दर्प के होने पर जो जो संयम की विरा. धना होती है वह दर्प प्रतिसेवना है १। 'पमाद' मद्यपान, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इन रूप प्रमाद होता है । इस प्रमाद से जो संयम की विराधना होती है वह प्रमादविराधना है २। अज्ञान आदि का नाम अनामोग है । इस अज्ञानादिरूप अनाभोग के होने -'गोयमा ! दसविहा पडिसेवणा पण्णत्ता' ७ गौतम ! प्रतिसेवना १० इस પ્રકારની કહી છે, પ્રતિકૂલ સેવનાનું નામ પ્રતિસેવના છે. તથા પ્રતિસેવનાનું બીજું નામ સંયમ વિરાધના છે. આ સંયમ વિરાધના રૂપ પ્રતિસેવના સંય. મના દેષ રૂપ હોય છે. જેથી સંયમના દે કેટલા હોય છે? આ રીતને આ પ્રશ્નને હેતુ છે અને સંયમના દોષ દસ છે એ પ્રમાણેને પ્રભુશ્રીએ उत्तर डेट छ त स हो। प्रमाणे छे. 'दप्पप्पमाद अणाभोगे आउरे आवईय, संकित्ते सहस्रक्कारे भयप्पओसाय वीमंसा' मडिया ६५ विगैरे पहोमi સપ્તમી વિભક્તિ થઈ છે, તેને અર્થ આ પ્રમાણે છે.–૫–અહંકાર થાય ત્યારે પ્રતિસેવન થાય છે. દર્પ અહંકાર-અભિમાનને કહે છે. અર્થાત અભિમાન રૂપ દર્પ થાય ત્યારે જે સંયમની વિરાધના થાય છે, તે દિપ પ્રતિसेना उपाय छे. १ ‘पमाद' भयान (३ विशे३) विषय, पाय, निद्रा અને વિકથા રૂપ પ્રમાદ હોય છે આ પ્રમાદથી જે સંયમની વિરાધના થાય શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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