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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ एकोनत्रिशतमं कालद्वारनिरूपणम् ३८३ प्रतिपन्नः तयोश्च प्रत्येकमेकोनत्रिंशतिवर्षेषु गतेषु चारित्रप्रतिपत्तिरित्येवमष्ट पश्चा शता वर्षेन्यूनं पूर्वकोटीइयं परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं स्यादिति । 'सुहुमसंपरायसंजया णं भते ! पुच्छा' सूक्ष्मसंपरायसंयताः खलु भदन्त ! कालतः कियचिरं भवन्तीति पृच्छा मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 1 'जहनेणं एक्कं समयं ' जघन्येन समयैकमात्रं भवति 'उकोसेणं अंतो मुहुतं' उत्कर्षेण अन्तर्मुहर्त्तम् । 'अहवखायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाख्यात संयताः यथा सामायिकसंयताः सामायिकसंयतवदेव यथाख्यातस यता अपि सर्वकाले एव भवन्तीति । (२९) ।
करता है । इसके बाद फिर कोई जीव इस चरित्र को प्राप्त नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में २ कोटि वर्ष तक इस चारित्र का सद्भाव उत्कृष्ट से आ जाता है । परन्तु ये दोनों जीव अपनी आयु के २९ वर्ष निकल जाने के बाद ही इस चारित्र को प्राप्त करते हैं । अतः २ कोटि पूर्व ० ५८ वर्ष से हीन हो जाते हैं । इसीलिये इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम २ कोटि पूर्व का कहा गया है। 'सुमपरायसंजयाणं भंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! नाना जीवों को अपेक्षा से सूक्ष्मसंपरायसंयत का काल कितना है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! जहन्ने एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुद्धतं' हे गौतम! सूक्ष्मसंपरायसंयत जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से एक अन्तर्मुहूर्त्त तक रहता है । 'अहक्वायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाख्यात संयत का काल सामायिक संयतों के जैसे है । अतः यथाख्यात संयत सर्वकाल में पाये जाते हैं । २९ वें कालद्वार का कथन समाप्त ।
પછી ફાઈ જીવ આ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરતા નથી, આ સ્થિતિમાં એ કરોડ વર્ષ સુધી ઉત્કૃષ્ટથી આ ચારિત્રના સદ્ભાવ આવી જાય છે. પર ંતુ આ બન્ને જીવ પાતાના આયુષ્યના ૨૯ વર્ષ નીકળી ગયા પછી જ આ ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરે છે. તેથી એ પૂકેટ ૫૮ અઠાવન વર્ષોથી ન્યૂન થઇ જાય છે. તેથી જ तेना उत्कृष्ट आफ ४४६४ माछा मे पूर्व अटिना उडेल छे. 'सुहुमसंपरायसंजयाणं भंते! पुच्छा' हे भगवन् सूक्ष्मस पराय सभ्यता भने भवानी अपेक्षाथी डेटा आज छे ? उत्तरमां अनुश्री उडे छे - 'गोयमा ! जहन्नेणं एक्क' समय उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' हे गौतम! सूक्ष्मस पराय संयंत धन्यथी को समय सुधी भने उत्कृष्टथी ! अंतर्मुहूर्त सुधी रडे छे. 'अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया' यथाभ्यात संयंतने! आज सामायिष्ठ संयंतनी नेटो छे, જેથી યથાખ્યાત સયંત સર્વ કાળમાં રહેતા હાય છે.
એગણુત્રીસમા કાળદ્વારનું કથન સમાપ્ત
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬