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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०२५ उ.७ सू०४ पञ्चदश सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३२७ वा भवति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णो हीणे णो तुल्ले' नो हीनो भवेत् नो तुल्यो भवेत् सक्षमसंपरायसंयनः सामायिकसंयतस्य परस्थानसन्निकर्षण चारित्रपर्यायापेक्षया किन्तु 'अन्महिए' अभ्यधिक एव भवेत् यदि अभ्यधिको भवेत्तदा 'अणंतगुणमन्महिए' अनन्तगुणाभ्यधिको भवेदिति । 'एवं छेदोवट्ठावणिय परिहारविमुद्धिएम वि सम' एवं छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिकयोरपि समम् सूक्ष्मसंपरायसंयतः नो हीनो नापि. तुल्यः किन्तु अधिको भवेत् तत्रापि अनन्तगुणाभ्यधिक एवेति भावः । 'सदाणे. सिय हीणे णो तुल्ले सिय अन्महिए' स्वस्थाने तु सजातीयचारित्रपर्यायापेक्षया तु स्यात्-कदाचिद् हीनः न तु तुल्यो भवेत् तथा स्यात्-कदाचित् अभ्यधिक । अथवा अधिक होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! णो हीणे, णो तुल्ले, अन्भहिए' हे गौतम ! सक्षमसंपराय. संयत सामायिकसंयत की विजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से हीन नहीं होता है, तुल्य नहीं होता है, किन्तु अधिक होता है। यदि वह अधिक होता है तो 'अणंतगुगममहिए' अनन्तगुण अधिक ही होता है। 'एवं छेदोवट्ठावणिय परिहारविसुद्धिएसु वि समं' इसी प्रकार से सूक्ष्मसंपराय संयत छेदोपस्थापनीय एवं परिहारविशुद्धिकसंयत की विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से हीन नहीं होता है तुल्य भी नहीं होता है किन्तु अधिक होता है । अधिकता में भी वह अनन्तगुण अधिक होता है । 'सट्ठाणे सिय हीणे, णो तुल्ले सिथ अमहिए' इसी प्रकार से वह स्वस्थान में सजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से कदाचित् हीन भी होता है, पर तुल्य नहीं होता और कदाचित् छ ? | प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ है-'गोयमा ! गों होणे, णो तुल्ले, अब्भहिए' 3 गौतम ! सूक्ष्भमां५२राय सयत सामायिय. તના વિજાતીય ચારિત્રપર્યાની અપેક્ષાથી હીન હોતા નથી તુલ્ય પણ હતા नथी, परंतु अघि डाय छ न त अघि डाय छ, त! 'अणंतगुणमन्महिए' मनता। मधिल डाय छ, ‘एवं छेदोवद्यावणियपरिहारविसुद्धिण्सु वि समं' એજ પ્રમાણે સૂમસાંપરાય સંયતના કથન પ્રમાણે છેદેપસ્થાપનીય અને પરિહારવિશુદ્ધિ સંયત વિજાતીય ચારિત્રપર્યાની અપેક્ષાથી હીન હતા નથી. તુલ્ય પણ હોતા નથી પરંતુ અધિક હોય છે. તથા અધિકપણામાં પણ ते मनता। शघि हाय छे. 'सटाणे सिय होणे, णो तुल्ले, सिय अभ. હિg' એજ પ્રમાણે તે સ્વાસ્થાનમાં સજાતીય ચારિત્રપર્યાની અપેક્ષાથી કોઈ વાર હીન પણ હોય છે. કોઈવાર અધિક પણ હોય છે. પરંતુ તુલ્ય હતા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬