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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०१३-३५ परिमाणद्वारनिरूपणम् २५३ कुशीलनां यत् कोटिसहस्रपृथक्त्वं कथितं तत् द्वित्रादिकोटिसहस्ररूपं कल्पयित्वा पुलाकबकुशादिसंख्या तत्र प्रवेश्यते ततः समस्तसयतमानं यत् कथितम् तनातिरिक्तं भवतीति । णियंठाणं पुच्छा' निग्रन्थाः खलु भदन्त ! एकसमये कियन्तो भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः । भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि' प्रतिपधमानकान् निम्रन्थान प्रतीत्य स्यादस्ति स्यान्नास्ति 'जइ अस्थि' यदि अस्ति तदा-'जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा' 'जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा निग्रन्था एकसमये भवन्ति 'उक्को सेणं बावट्ठे सयं' उत्कर्षेण द्वाषष्टिशतम् द्वाषष्टयुत्तरशतममाणनिर्ग्रन्या उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है क्यों कि कषाय कुशीलों का जो कोटि सहस्रपृथक्त्व कहा गया है उसे दो तीन कोटि सहस्र रूप में कल्पित करके उस में पुलाकादिकों की संख्या को मिला दिया जाता है इस प्रकार सर्व संयतो का जो प्रमाण कहा गया है वह अधिक नहीं होता है। _ 'णियंठे गं पुच्छा' हे भदन्त ! एक समय में निर्ग्रन्थ कितने होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! पडिवज्जमाणए पहुव्य सिय अस्थि सिय नस्थि' हे गौतम ! प्रतिपद्यमानक निर्ग्रन्थों को आश्रित करके एक समय में निर्ग्रन्थ होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते हैं । 'जइ अस्थि जहन्नेण एक्को वा दो वा तिमि वा' यदि एक समय में निग्रेन्थ होते हैं तो कम से कम एक अथवा दो अथवा तीन होते हैं और 'उकोसेणं बावढे सयं' उस्कृष्ट से १६२ होते આવે છે. તે સ્વભાવથી જ આ સંખ્યા તેનાથી પણ વધારે થઈ જાય છે. જેથી કેટિસહસ્ત્ર પૃથક્વનું કથન વિરૂદ્ધ થઈ જાય છે. ઉત્તર–આ શંકા ઉચિત નથી. કેમકે કષાયકુશીલને જે કટિ સહસ્ત્ર પૃથકત્વ કહ્યા છે તેને બે ત્રણ કોટિ સહસ્ત્રપણામાં ક૯પના કરીને તેમાં પુલાક વિગેરેની સંખ્યા મેળવવામાં આવે છે. આ રીતે સર્વ સંયતનું જે પ્રમાણે કહ્યું છે, તે અધિક થતું નથી. 'णियंठेणं पुच्छा' सगवन् । समयमा निन्थ लाय ? या प्रशन उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि' 8 गौतम! प्रतिपयमान निथान माश्रय ४शने में समयमा निन्य साय ५६ छ, भने वार नथी पडता. 'जइ अस्थि जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा' ने समयमा निन्याय छे. तोमा माछा 23 अथवा मे अथवा डाय छे. मन 'एक्कोसेणं चावट सय या १९२४ से मास: mय छे. तमाम 'अदा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬.
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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