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________________ १७८ भगवतीमले भवति लेश्यारहितो न भवतीति भावः । 'जई' सलेस्से होज्जा' यदि कषाय. कुशीला सलेश्यो भवेत् तदा-से गं भंते !' स कषायकुशीलः खलु भदन्त । 'कइम लेस्सासु होज्जा' कतिषु लेश्यासु भवेत् तदा स कियत्संख्यकलेश्यावान् भवतीत्यर्थः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'छसु लेस्सासु होज्जा 'षट्सु लेश्यासु' भवेत् षडपि लेश्याः कषायकुशीले भवति, एतत्तु सकषाय. मेव आश्रित्योक्तमिति संभाव्यते, अन्यथा पूर्वप्रतिपन्नस्तु अन्यतरस्यामेकस्यामेव लेश्यायां भवति, उक्तश्च-'पुन्यपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ ले साए' पूर्वपति. पन्नकः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायाम् 'तं जहा' तद्यथा-'कण्हलेस्साए जाव मुक्का लेस्साए' कृष्णलेश्यायां यावत् शुक्ललेश्यायाम, यावत्पदेन नीलकापोतिक नैजस पदलेश्यानां संग्रहो भवतीति तथा-च कृष्णनीलकापोतिकतै नस पद्मशुक्ललेश्याहोजा, नो अलेहले होज्जा' हे गौतम ! वह लेश्शावाला होता है-विना. छेश्या का नहीं होता है। 'जह सलेस्से होज्जा' यदि कषायकुशील. साधु लेश्यावाला होता है-लो से णं भंते ! कइसु लेस्सा होज्जा' हे भदन्त ! वह कितनी लेश्याओं वाला होता है ? उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! छस्सु लेस्सासु होज्जा' हे गौतम! वह छह लेश्यावाला होता है। ऐसा जो यह कथन किया गया है वह कषाय सहितता को लेकर ही कहा गया है क्यों कि जो पूर्व प्रतिपन्न कषायकुशील होता है वह छहों में से किसी एक लेक्शावाला होता है । उक्तं च-पुव्वपडियन्नओ पुण अनयरीए उ लेस्साए'। 'कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए' कृष्णलेश्या से लेकर वह कषायकुशील साधु यावत् शुक्ललेश्यावाला होता है यहां यावत्पद से नील, कापोतिक, तैजस और पद्म इन लेश्याओं का ग्रहण हुआ है । तथा च-वह कषायकुशील वेश्या विमानाडाता नथी. 'जइ सलेस्से होजा' ने उपायशी साधु वेश्यावा हाय छे, तो 'से गं भंते ! कइसु लेसासु होज्जा' मानते કેટલી વેશ્યાઓવાળા હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! छस्सु लेस्सासु होज्जा' गौतम! त छ सश्यावाणा डाय छे. ये પ્રમાણેનું જે આ કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે કષાય સહિતપણાને લઈને જ કહેલ છે. એ પ્રમાણે જણાય છે. નહીં તે જે પૂર્વ પ્રતિપન કષાય કશીલ હોય છે, તે કઈ એક જ વેશ્યાવાળા હોય છે. કહ્યું પણ છે કે'पुवपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए' 'कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए' કલેશ્યાથી લઈને તે કષાય કુશીલ સાધુ નીલ લેશ્યાવાળા હોય છે. કાપતિક લેયાવાળા હોય છે. તૈજસ વેશ્યાવાળા હોય છે, પદ્મશ્યાવાળા હોય શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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