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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०७ चतुर्दशं संयमद्वारनिरूपणम् १३७ यस्स पि' एवं-निग्रंन्यवदेव स्नातकस्यापि संयमस्थानमजघन्यानुन्कष्टमेष भवति कषायाणामुपशमस्य क्षयस्य चाविचित्रत्वेन शुद्धेरेकविधत्वात् एकस्वादे तदजघन्योत्कृष्टं भवतीति । अथैतेषामेवाल्पबहुत्वमाह 'एएसि " इत्यादि, 'एपसि गंभ' एतेषां खलु भदन्त ! 'पुलागवउसपडि सेवारसायकुपीलणियंठसिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा' पुलाक बकुछ पतिसेवनाकुशीलकषायकुशीलनिग्रन्थस्नातकानां संयमस्थानानां कतरे कतरेभ्यो अल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा इति प्रश्नः। भगवानाद'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' गौतम ! 'सनस्थोवे णियंठस्स सिमायस्सय प्रकार की होती है। 'एवं सिणायस्स वि' इसी प्रकार से स्नातक के भी संयमस्थान अजघन्य अनुस्कृष्ट ही होता है-क्पो कि कषाय का उपशम और क्षय एक प्रकार का ही होता है । इससे शुद्धि एक ही प्रकार की होती है। अत: उसकी एकना में वहां जघन्य और उत्कृष्ट भेद नहीं होता है। ___ अब सूत्रकार इनके ही अल्प बहुत्व का कथन करते हैं-इस में गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा हैं-'एएसि णं भंते ! पुलाग पउस पडिसेवणाकसायकुसीलणियंठसिणायाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा' हे भदन्त ! इन पुलाक, बकुश, प्रति. सेवनाकुशील, कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक के संयमस्थानों में कौन किन से अल्प हैं ? कौन बहुत हैं ? कौन बराबर हैं ? और कौन विशेषाधिक हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोपमा! सम्व 'एवं सिणायस्स वि' मेरा प्रमाणे स्नातन सयमस्थानी ५४ मधन्य भने અનસ્કૃષ્ટ જ હોય છે. કેમકે કષાને ઉપશમ અને ક્ષય એકજ પ્રકારનો હોય છે. તેથી શદ્ધિ એક જ પ્રકારની હોય છે તેથી તેની એકતામાં ત્યાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટને ભેદ હોતું નથી.
હવે સૂત્રકાર તેઓના અલ્પબહુપણુનું કથન કહે છે.-તેમાં ગૌતમસ્વામી प्रशनस पूछे छ-'एएसिणं भंते ! पुलागबकुलपडिसेवणाकसायकुसील. णियंठसिणायाणं संजमढाणा णं कयरे कयरे हितो! जाव विसेसाहिया वा' है ભગવન આ મુલાક, બકુશ પ્રતિસેવના કુશીલ, નિગ્રંથ અને સ્નાતકના સંયમ સ્થાનમાં કોણ કોનાથી અલપ છે? કે કોનાથી વધારે છે? અને કોણ કોની બરોબર છે? તથા કણ વિશેષાધિક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीन :-'गोंयमा ! सव्वत्थोवे णियंठस्स, सिणायस्सय एगे अजह
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧