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________________ भगवतीखूरे चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमस्य विचित्रत्वात् । 'एवं जाव कसायकुसीलस्स' एवं यावत् कवायकुशीलस्य असंख्येयानि संयमस्थानानि ज्ञातव्यानि अत्र यावस्पदेन पशपतिसेवनाकुशीलयोग्रहणं भवतीति 'णियंठस्स णं भंते ! केवइया संजम. डाणा पमत्ता' निर्ग्रन्थस्य खलु भदन्त ! कियन्ति संयमस्थानानि प्रज्ञप्तानीति मना भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे अजहन्नमणुको सए संजमहाणे' एकमजघन्यानुस्कृष्टं संयमस्थानम् निग्रन्थस्य कषायाणामुपशमस्य क्षयस्य च अविचित्रत्वेन, तदीयशुद्धेरेकपकारकत्वात् एकत्वादेव तदजघन्योत्कृष्ट भवति, बहुविध शुद्धिश्चेव जघन्यस्योत्कृष्टस्य च भावस्य सद्भावादिति । एवं सिणान्तानन्तपर्याय-अंश-होते हैं । क्यों कि चारित्र मोहोनाप कर्म का क्षयो. पशम विचित्र होता है। ऐसा ही कथन 'जाव कसायकुसीलस्स' पावतू कषाय कुशील तक जानना चाहिये । यहां यावत्पद से बकुश और प्रतिसेषना कुशील इन दो साधुओं का ग्रहण हुआ है। "णियं. ठस्स गं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! निर्गन्ध साधु के संयमस्थान कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे अजहण्णमणुकोसए संजमट्ठाणे' हे गौतम! निर्ग्रन्थ साधु के जघन्य और उत्कृष्ट भेद रहित केवल एक संयम स्थान कहो गया है। क्यों कि निर्ग्रन्थ के कषायों का क्षय अथवा उपशम एक ही प्रकार का होता है इससे उनकी शुद्धि एक ही प्रकार की होती है। इसीलिये वहां जघन्य उस्कृष्ट का भेद नहीं कहा गया है । जघन्य और उत्कृष्ट भाव के सद्भाव से ही शुद्धि अनेक નંતપર્યાય-અંશ હોય છે. તેમાં પુલાકના સંયમસ્થાને અસંખ્યાતગણ હોય છે. કેમકે-ચારિત્રમોહનીય કર્મને ક્ષોપશમ વિચિત્ર હોય છે. એવું જ थन 'जाव कसायकुनीलस्स' यारत मधुश मन प्रतिसेवना शास तथा કષાયકુશીલના સંબંધમાં સમજી લેવું. અહીંયાં બકુશ અને પ્રતિસેવના કુશીલ से में यात ५४थी अ6] ४२॥या छे. 'णियंठस्स णं भंते! केवइया संजमदाणा पण्णत्ता' सावन् नि साधुने समस्यामा छटा ४ा छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन छ -गोयमा !' है गौतम! 'एगे अजहण्णमणुकोसए संजमदाणे' ! निन्य साधुन धन्य भने पटना ભેદ વિનાનું કેવળ એક સંયમસ્થાન કહેલ છે. કેમકે નિર્ચાને કષાયે ક્ષય અથવા ઉપશમ એક જ પ્રકારનો હોય છે. તેથી તેમની શુદ્ધિ એક જ પ્રકારની હોય છે. તેથી ત્યાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટનો ભેદ કહ્યો નથી. જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટભાવના સદૂભાવથી જ અનેક પ્રકારની શુદ્ધિ હોય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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