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प्रमेयर्चान्द्रका टीका श०२५ उ.४ सू०५ शरीरप्रकारनिरूपणम् तत्र खलु ये ते विग्रहगतिसमापन्नका स्ते खलु सर्वे जाः, विग्रहगतिसमापन्नकानारका कन्दुकगत्या गच्छन्तीति कृत्वा सर्वेजा इति कथ्यन्ते । 'तत्थ णं जे ते अविग्गहगइसमावन्नगा ते णं देसेया' तत्र खलु ये ते अविग्रहगतिसमापन्नका स्ते खलु देशैजाः। अविग्रहगतिसमापन्नकास्तु-नरकावस्थिता एवाऽत्र विव. सिवा इति सम्भाव्यते देहे विद्यमाना एव मारणान्तिकसमुद्घातात्-देशेन ईलिकागत्योत्पत्तिक्षेत्र स्पृशन्तीति देशैजाः स्वक्षेत्रस्थिता वा हस्तादि देशा. नामेजनादिति । 'से तेणढणं जाव सम्वेयावि' तत्तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते नैरयिकाः देशैजा अपि, सजा अपीति । 'एवं जाव-वेमाणिया' एवम्-नारक. वे सर्वाश से सकंप होते हैं । क्योंकि विग्रह गति समापन्नक नारक कन्दुक की गति से उत्पसिस्थान में जाते हैं । 'तत्थ णं जे ते अविग्गहगइ समावन्नगा ते णं देसेया' उनमें जो अविग्रहगति समापन्नक नारक हैं वे ही यहां विवक्षित हुए ज्ञात होते हैं, जो नारक में ही अवस्थित हैं क्यों कि वे नारकदेह में विद्यमान होते हुए ही मारणा. न्तिक समुद्घात द्वारा ईलिकागति से उत्पत्ति स्थान का अंशतः स्पर्श करते हैं। इसलिये ये देश से सकंप होते हैं। अथवा-स्वक्षेत्र में रहे हुए जीव जो अपने हाथ पांव आदि अवयवों को चलाने रूप क्रिया बारा सकंप होते हैं वे गृहीत हुए हैं। क्योंकि इस प्रकार से इनमें देश से सकंप होता है-सर्वाश से नहीं। 'से तेणद्वेणं जाव सम्वेया वि' इस कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि नैरयिक देश से भी सकंप होते हैं और सर्वाश से भी सकंप होते हैं। 'एवं जाव वेमाणिया' नारक के जैसे ही यावत् वैमानिक भी देश से भी सकंप પનક નારક હોય છે, તેઓ સર્વોશથી સકંપ હોય છે. કેમકે વિગ્રહગતિ समापन्न ना२४ ६४नी गतिथी अपत्ति स्थानमा नय छे. 'तत्थ णं जे ते अविग्गहगइसमावन्नगा ते णं देसेया' भविड गति समापन मे ना२।। અહીંયાં વિવક્ષિત થયા છે કે જે નારકમાં જ અવસ્થિત હોય છે. કેમકે-તે નારકેના શરીરમાં વિદ્યમાન હોવા છતાં પણ મારણાનિક સમુદ્રઘાત દ્વારા ઈલિકાગતિથી ઉત્પત્તિસ્થાનને અંશત: સ્પર્શ કરે છે, તેથી તે દેશથી સપ હોય છે. અથવા પિતાના ક્ષેત્રમાં રહેલા જીવો પોતાના હાથપગ વિગેરે અવયવને ચલાવવા રૂપ ક્રિયા દ્વારા સકંપ હોય છે. કેમકે આ રીતે તેઓમાં देशथी स४५५ डाय छे. सशिथी नडी 'से तेणटेणं जाव सव्वेया वि' કારણથી હે ગૌતમ! મેં એવું કહ્યું છે કે-નરયિકે દેશથી પણ સકંપ હોય छ, भने सशिथी ५६५ स४५ डाय छे. 'एव जाव वेमाणिया' नानी
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫