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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१५ ३.४ २०५ शरीरप्रकारनिरूपणम् ८०१ गत्या-उत्पत्तिस्थानं गच्छन्तो देशैजाः प्राक्तन शरीरस्थस्य विवक्षया निश्चलत्वात, कन्दुकगत्या गच्छन्तः सर्वैजाः सर्वात्मना तेषां गमनमवृत्तत्वादिति । 'से तेणढे गं जाव निरेयावि' तत्तेनार्थेन यावव-निरेजा अपि अत्र यावत्-पदेन-भंते । एवं बुच्चइ जीवा सेया वि' इत्यस्य पदसन्दर्भस्य ग्रहणं भवतीति। 'नेरइया णं भंते ! कि देसेया-सम्वेया' नैरयिकाः खल्लु भदन्त ! कि देशैजा:-सजावेति प्रश्नः ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! देशैना अपि नैरयिका भवन्ति तथा-सर्वेना अपि भवन्ति। 'से केणटेणं जाव-सव्वेयावि' तत्केनार्थन जीव इलिका (कीरविशेष) गति से उत्पत्तिस्थान में जाते हैं वे देशतः सकंप होते हैं। क्योंकि पूर्व शरीरस्थ अंश उनका गति क्रिया रहित होता है और जो कन्दुक की गति से उत्पत्ति स्थान में जाते हैं वे सर्वदेश से सकंप होते हैं, क्योंकि उनकी गति क्रिया सर्वात्मना होती है। 'से तेणटेणं जाव निरेया वि' इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि जीव सकंप भी होते हैं और निष्कंप भी होते हैं।
अब श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'नेरइया णं भंते ! कि देसेया सव्वेया' हे भदन्त ! नैरयिक क्या एकदेश से सकंप चलने. वाला होते हैं अथवा सर्वदेश से सकंप होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा' हे गौतम ! नरयिक एकदेश से भी सकंप होते हैं
और सर्वदेश से भी सकंप होते हैं। अब पुनः श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'से केणढे णं जाव सव्वेया वि' हे भदन्त ! ऐसा आप गौतमस्वामीन । छे -"गोयमा ! देसेया वि सब्वेया वि' हे गौतम ! तो। એદેશથી પણ સકંપ હોય છે, અને સર્વદેશથી પણ સકપ હોય છે. તેનું કારણ એવું છે કે-જે જીવ ઈલિકા ગતિથી ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં જાય છે, તેઓ દેશતઃ સકંપ હોય છે કેમકે-પૂર્વ શરીરમાં રહેલ અંશ ગતિકિયા વગરને હોય છે. અને જે કંદુકની ગતિથી ઉત્પત્તિસ્થાનમાં જાય છે, તેઓ સર્વદેશથી સકંપ હોય छ. भ3-मनी गतिठिया सर्व प्राणी हाय छे. 'से तेणटेणं जाव निरेया वि' मा २१यी ३ गौतम ! में मे घुछ ३-०१ स४५ ५४ डाय छे, म नि ५ ५ डाय छे.
श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीन मे पूछे छे है-'नेरइयाणं भंते ! कि देसेया सम्वेया सावन् नयिका अमेशिथी स४५ हाय छ सशथी स४५ डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छे -'गोयमा !' હે ગૌતમ! રિયિક એકદેશથી પણ સકંપ હોય છે. અને સર્વદેશથી પણ सप डाय. शथी श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे 3-'सेकेण
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫