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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.२० उ.७ सू० १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ४९ येनाह-निरंतरं जाव वेमाणियाणं' निरन्तरं यावद्वैमानिकानाम् निरन्तरम्अन्तररहितं नारकादारभ्य वैमानिकानाम्-नारकादारभ्य वैमानिकपर्यन्तजीवराशीसम्बन्धिदर्शनमोहनीयस्य कर्मणस्त्रिपकारको बन्धो ज्ञातव्य इति भावः । 'एवं चारित्तमोहणिज्जस्त वि जाव देमाणियाणं' एवं चारित्रमोहनीयस्यापि यावद्वैमानिकानाम्-एवं दर्शनमोहनीयकर्मगस्त्रिविधबन्धवत् चारित्रमोहनीयस्यापि कर्मणस्त्रिविधो बन्धोऽस्तीति ज्ञातव्यम् । नारकादारभ्य वैमानिकान्तजीवसम्बन्धिचारित्रमोहनीयस्यापि कर्मणस्वैविध्यं भातीति भावः। ‘एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्ममसरीरस्स' एवम्-एतेन उपरोक्तप्रदर्शितप्रकारेण औदारिकशरीरस्य यावत्कार्म पीरस्यापि त्रिविधो बन्धो ज्ञातव्या, अत्र यावत्पदेन आहारकपैकितैजस शरीराणां संग्रहो भवति तथा औदारिकाहार कवैक्रियतैजसकामगपश्चप्रकारकशरीरसंबन्धी त्रिप्रकारको बन्धो 'निरंतरं जाव वेमाणियागं' इस सूत्रपाठ धारा समझाई गई है अर्थात् नैरविक से लेकर वैमानिक पर्यन्त समस्त जीव राशि संबंधी दर्शनमोहनीय कर्म का तीन प्रकार का बंध होता है, 'एवं चारित्तमोहणिज्जस्स विजाव वेमाणियाणं' दर्शनमोहनीय कर्म के तीन प्रकार के बंध के जैसा चारित्रमोहनीय कर्म का भी बंध नारक से लेकर धैमानिक पर्यन्त जीवों को तीन प्रकार का होता है एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स' इसी उपरि प्रदर्शित प्रकारबाले क्रम के अनुसार औदारिक शरीर का यावत् कार्मण शरीर का भी तीन प्रकार का बंध होता है यहां यावत्पद से आहारक, वैक्रिय और तेजप्त इन तीन शरीरों का ग्रहण हुआ है इस प्रकार औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण इन पांच शरीरों का तीन प्रकार का बंध होता है ऐसा जानना चाहिये 'आहारछ. मे४ पात निरंतरं जाव वेमाणियाणं' मा सूत्रपाथी समावेस छे. અર્થાત નિરયિક જીવોથી લઈને વૈમાનિક સુધીના સઘળા જીવસમૂહને દર્શન भाहनीयमन प्रारन। म थाय छे. 'एव चारित्तमोहणिज्जस्य वि जाव वेमाणियाणं' हैशनमानीय मना प्रा२ना मनी रेम ચારિત્રમોહનીય કર્મને બંધ પણ નારકથી વૈમાનિક સુધીના જીને ત્રણ मारे थाय छे. ' एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स' ઉપર કહેલ પ્રકારવાળા કમથી ઔદારિક શરીરનો યાવત્ કામણ શરીરને પણ ત્રણ પ્રકારથી બંધ થાય છે. અહિયાં યાવત્ પદથી આહારક, વૈકિય, તિજસ, આ ત્રણ શરીરે ગ્રહણ કરાયા છે. આ રીતે ઔદારિક, વિકિય, આહારક, તૈજસ, અને કાર્પણ આ પાંચ શરીરને ત્રણે પ્રકારને
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૪