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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२० उ०७ सू०१ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ४५ फर्मणः कतिविधो बन्धो भवतीति मना, उत्तरमाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे बंधे पन्नत्ते' त्रिविधो बन्धः प्रज्ञप्तः, ज्ञानावरणीयोदयस्य कर्मणः ‘एवं चेव' एवमेव जीवप्रयोगवन्धोऽनन्तरबन्धः परम्परबन्धश्चेति । 'एवं नेरइयाण वि' एवं नायिकाणामपि ज्ञानावरणीयोदयस्य कर्मणस्त्रिविधो बन्धो भवतीति, ‘एवं जाव वेमाणियाणं' 'एवं यावद्वैमानिकानामपि ज्ञानावरणीयोदयस्य कर्मणः त्रिविधो बन्धो भवतीति, अत्र यावत्पदेन दशभवनति पश्चस्थावरविकलेन्द्रियतिर्यञ्चपञ्चेन्द्रियमनुष्यवानव्यन्तरज्योतिष्कपर्यन्तसईदण्ड कानां संग्रहो भवती ते ज्ञातव्यम् , 'एवं जाव अंतराइउदयस्स' एवं यावद् अन्तरायोदयस्य कर्मणोऽपि त्रिपकारको बन्धो ज्ञातव्यः, यावत्रदेन दर्शनावरणीयोदयकर्मतआरभ्य गोत्रान्तोदयकर्मणः संग्रहो भवतीति । इत्थी वे यस्स णं भंते ! धरणीयोदय कर्म का बंध कितने प्रकार का होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा !' हे गौतम ! 'तिविहे बंधे पन्नते' इस ज्ञानावर. णीयोदय कर्म का बंध तीन प्रकार का होता है-जीवप्रयोगबंध, अनन्तर बंध और परम्पराबंध एवं नेरइयाण वि' इसी प्रकार से ज्ञानावरणीयोदय कर्म का बंध नैरयिक जीवों को भी तीन प्रकार का होता है। एवं जाव वेमाणियाणं' इसी प्रकार से यावत् वैमानिकान्त जीवों का भी ज्ञानावरणीयोदय कर्म का बंध तीन प्रकार का होता है यहां यावत्पद से दश भवनपति पांच स्थावर, विकलेन्द्रिय त्रिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुघ, वानव्यन्तर, और ज्योतिष्क इन चोवीस दण्डकों के जीवों का ग्रहण हुआ है। 'एवं जाव अंतराइ उदयस्स' इसी प्रकार से यावत् अन्तरायोश्य कर्म का भी बंध तीन प्रकार का होता है ऐसा जानना चाहिये यहां यावत्पद से दर्शनावरणीयोदय से लेकर गोत्रान्तोदय कर्म का
દય કર્મ છે. એવા તે જ્ઞાનાવરણીય ઉદય કમને બંધ કેટલા પ્રકારનો हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ है-'गोयमा !' 3 गीतम सिविहे बंधे पण्णत्ते' मा ज्ञानीय लय भने। म र प्रारना थाय छ. 'एव जाव वेमाणियाणं' २४ शत यावत् वैमानि ७वाने ५९ ज्ञानाવરણીય ઉદય કમને બંધ ત્રણ પ્રકારને થાય છે અહિયાં પાવાદથી દસ ભવનપતિ ૧૦, પાંચ સ્થાવર ૫, વિકલેન્દ્રિય તિયચ, પંચેન્દ્રિય તિર્યંન્ચ મનુષ્ય, વાન વ્યતર, અને જ્યોતિષ્ક આ બધા જ જીવે ગ્રહણ કરાયા છે. 'एव जाव अंतराइउदयस्स' से रीते यावत् सन्तराय य मन। म પણ ત્રણ પ્રકારનો થાય છે. તેમ સમજવું. અહિયાં યાવત્પદથી દર્શનાવરણીય जय भाथी सधन गोत्रान्ताय भनी सड ५। छे. वे 'इत्थीवेयस
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪